Friday 28 August 2015

क्या पवित्र काबा शिव मंदिर हे ...?

क्या काबा शिव मंदिर हैं..???सत्य जानने के लिए कृपया इस लेख को पढने के साथ यह विडियो भी देखें:

लिंक-1 Inside view of Kaba

लिंक-2 https://youtu.be/RKFCAumghG8

आज कल एक बेतुकी और बिना सर पैर की की अफवाह को जानबूझकर वास्तविक रूप दे कर पेशकरने की कोशिश की जा रही हैं अक्सर websites, blogs, facebook तथा twitter आदि के माध्यम से यह अफवाह कुछ लोगो द्वारा फैअलायी जा रही हैं की मुसलमानों का काबा एक शिव मंदिर हैं या फिर उसमे शिवलिंग हैं या यशोदा और कृष्ण की तस्वीरे काबे के अन्दर हैं या कोई दीपक हमेशा जलता रहता हैं और मुसलमान हज के दौरान वहा शिव या कृष्ण उपासना करते हैं ??

यह पूर्ण रूप से बकवास और अफवाह हैं एक तरफ तो यही लोग कहते हैं की मुसलमान बादशाहों ने मंदिर तोड़े क्यूंकि वो उन्हें मानते नहीं थे और फिर कहते हैं मुसलमानों का काबा एक मंदिर हैं जहा मुसलमान शिवलिंग की उपासना करते हैं यदि मुसलमान शिवलिंग की उपासना ही करते हैं तो फिर उन्हें यह बात कहने या बताने में क्या हर्ज हैं?
और क्यूँ फिर वो जिस देवता को मानते हैं उसे उसी के देश भारत में उसकी उपासना क्यों नहीं करते? या फिर तीर्थ पर मक्के के बजाये अमरनाथ या काशी क्यों नहीं जाते?


काबे के शिव मंदिर होने की अफवाह सर्वप्रथम रवि शंकर ने अपनी किताब 'Hindusim & Islam' में प्रस्तुत की थी बिना किसी तर्क और दलील के बस उसने लिख दिया और आम हिन्दुओ ने मान लिया क्या अब तक किसी हिन्दू को पता था की उनका सबसे बड़ा शिव मंदिर काबा हैं? 

क्या पुराणों में अरब में किसी शिव मंदिर का वर्णन हैं ? 

ज़ाहिर हैं नहीं यह सिर्फ रवि शंकर और कुछ हिन्दुओ की उड़ाई हुई अफवाह है जिसका वास्तविकता से कुछ लेना देना नहीं हैं और वैसे भी हिन्दू धर्म कभी भारतीय उपमहादीप के बहार नहीं गया और ना ही कभी भारतीय उपमहादीप के बहार कोई हिन्दू धर्म के मानने वाला या कोई हिन्दू मंदिर रहा हैं पुरे सऊदी अरब, बहरीन, मिस्र, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, रोम, टर्की, अमेरिका, अफ्रीका, रूस आदि के इतिहास में वैदिक धर्म का या किसी भारतीय देवता के मंदिर का कोई नामो निशान भी नहीं मिलता हैं और 

हिन्दू reformer स्वामी दयानद सरस्वती के अनुसार तो यह सभी देवी देवता लोगो के स्वयं के घड़े हुए हैं और प्राचीन भारतीय समाज में सिर्फ एक निराकार ईश्वर की उपासना होती थी तो फिर मक्के में किसी प्राचीन शिव मंदिर का तो कोई मसला ही नहीं बनता हैं 

और वैसे भी इन लोगो को तो हर खड़ी चीज़ शिवलिंग और हर काली वस्तु महादेव नज़र आते हैं कल को कही यह लोग यह दावा नहीं कर दे के दुनिया में हर काले रंग की इमारत शिव मंदिर हैं और जितने बिजली के खम्बे हैं सब शिवलिंग हैं.

इस पोस्ट को हर तरफ फैलाये ताकि जो भी हमारे गैरमुस्लिम भाई-बहन को काबा को लेकर जो गलत फ़हमी हो वो दूर हो जाये.. इन शा अल्लाह...

Sunday 2 August 2015

इस्लाम में बाप की जायदाद मेसे बेटी को बेटे की तुलना में बराबर हिस्सा क्यों नही ..?

सवाल :- मुस्लिम इस बात का तो बड़ा बखान करते हैं कि कुरान मे पैतृक सम्पत्ति मे बेटों के साथ साथ बेटी को भी हिस्सा देने का आदेश है, पर वो ये बात नहीं बताते कि कुरान मे पिता की जायदाद मे से बेटे को बेटी से दुगुनी जायदाद का वारिस बनाने की बात कही गई है ... 
क्या इससे सिद्ध नहीं होता कि इस्लाम मे औरत और मर्द को बराबरी का अधिकार नहीं है, और इस्लाम मे स्त्री को पुरुष से कमतर माना गया है ? 

जवाब :- भाई , पवित्र कुरान मे पिता की सम्पत्ति मे लड़की को लड़के से आधा हिस्सा देने का कारण ये है कि लड़की अपने पति से भी सम्पत्ति पाएगी .... 
साथ ही उसपर अपनी सम्पत्ति मे से अपने माता पिता का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी नहीं होती, न ही इस सम्पत्ति से स्त्री पर अपने पति या बच्चों का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी है, बल्कि सामान्यतया ये जायदाद व्यक्तिगत रूप से उस स्त्री के प्रयोग के लिए ही है जबकि बेटे को अपनी सम्पत्ति मे से अपने माता पिता, पत्नी बच्चों सभी का भरण पोषण करना है इसलिए उसका हिस्सा बहन से दुगुना होता है ...... 
और भाई आपने कुरान की बात की जिसमें बेटी के लिए पिता की जायदाद मे से अनिवार्यत: एक बड़ा हिस्सा निर्धारित होता है जिससे स्त्री सशक्त हो कर सम्मान का जीवन जी सकती है, क्या आप कुरान के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म की किताब मे बेटी पत्नी या मां को सम्पत्ति का अनिवार्य वारिस बनाए जाने की बात दिखा सकते हैं ??? 

यहाँ तक कि यदि एक स्त्री जिसके बाल बच्चे हैं उसके पति की मौत हो जाए तो बच्चों के हिस्से से अलग स्त्री का निजी हिस्सा पति की छोड़ी हुई सम्पत्ति का आठवा भाग अनिवार्यत: दिए जाने का प्रावधान है .... किसी और धर्म मे है ऐसी व्यवस्था भाई ??? 
हमने तो यही जाना कि पति की मौत के बाद सारी सम्पत्ति बेटों मे बांट दी जाती है स्त्री का कोई हिस्सा नहीं ... 

और यदि विधवा होनेवाली स्त्री निसन्तान हो तो फिर पति के भाई जब चाहे तब स्त्री को निकाल फेकते हैं, जबकि इस्लाम मे विधवा होनेवाली स्त्री निसन्तान हो तो बच्चे वाली से दोगुनी सम्पत्ति की वारिस उसे बनाने का प्रावधान है ॥ 
ज़ाहिर है पिता की सम्पत्ति मे बेटे को बेटी से ज्यादा देने का कारण न तो स्त्री के साथ भेदभाव का नजरिया रखना है, और न ही स्त्री को किसी से कमतर बताना, बल्कि ये एक बड़ी नीतिसंगत व्यवस्था है जिससे सामाजिक ताना बाना भी बना रहे और इसी के साथ साथ समाज मे स्त्रियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति भी मजबूत हो जाए .... 

हमें नहीं लगता कि इस व्यवस्था मे कुछ भी आपत्तिजनक या अन्यायपूर्ण है ॥

इस्लाम को बदनाम करने के लिए फेलाई जा रही जूठी हदीश की समीक्षा पार्ट -4 (स्त्री की मर्यादा शोषण और उम्मे किर्फा)

इस्लाम विरोधी लोग हदीस के शब्दों को तोड़ मरोड़कर इस्लाम पर आपत्तिजनक आरोप लगाने मे माहिर हैं, 

हम जब भी इस्लाम मे युद्ध के समय भी शत्रु स्त्रियों के सतीत्व और सुरक्षा को मुस्लिमों द्वारा कतई हानि न पहुंचाने के नियम के बारे मे बताते थे , तो एक भाई "उम्मे किर्फा" का नाम लेते हुए पहुंच जाते और ये आरोप लगाते थे कि उक्त उम्मे किर्फा नाम की गैरमुस्लिम महिला की जघन्य हत्या मुस्लिमों ने कर डाली थी, 
और उसकी बेटी को मक्का के काफिरो को एक गुलाम के रूप मे बेच दिया था ... 

सच ये है कि उम्मे किर्फा की कहानी एण्टी इस्लामिक साइट्स द्वारा गढ़ी गई है जिसके लिए "सिरा" और "तारीखे तबरी" एवं मुस्लिम शरीफ़ के तथाकथित प्रमाण दिए जाते हैं, लेकिन सिरा और तबरी हदीस नहीं हैं, न ही इस नाते ये इस्लामी ज्ञान का स्रोत हैं, 
हालांकि इन किताबों (सिरा व तबरी) पर मुस्लिमों की आस्था नहीं है, इन किताबों मे इस्लामी आचार विचार के विरुद्ध कई बातें हैं इन किताबों मे उम्म किर्फा की पूरी कहानी की वास्तविकता भी संदेहास्पद है, ..... 
फिर भी, इन अप्रमाणिक और संदेहास्पद किताबों से भी मुस्लिम अपराधी नहीं ठहरते, इन किताबों मे भी तथ्य यही हैं कि उम्म किर्फा स्वयं मुस्लिमों पर आक्रमण करती थी और हिंसक, क्रूर और बर्बर तरीकों से मुस्लिमों की हत्या करती थी वो कई मुस्लिमों की हत्या की दोषी थी, और जान के बदले जान का नियम जो इस्लाम मे स्त्री पुरूषों के लिए समान है, 
उस नियम के तहत उसको मृत्युदण्ड दिया गया... बहरहाल इस्लामी ज्ञान का स्रोत सही हदीस और कुरान है, और उनमें आप कहीं उम्म किर्फा का जिक्र तक नहीं दिखा सकते, तो इस कहानी को हम इस्लाम विरोधियों का एक झूठा प्रपंच से अधिक कुछ क्यों मानें, 
हमारे सामने तो मक्का के सरदार अबू सुफयान की पत्नी हिन्द का प्रमाणिक उदाहरण है, जो युद्ध मे मुस्लिमों को अत्यधिक हानि पहुंचाती थी, और युद्ध मे नबी सल्ल. के प्रिय चचा हज़रत हमज़ा,रज़ि. का कत्ल करवाने के बाद उनकी लाश को चीर कर उनका कलेजा चबा गई थी, इसके बावजूद जब मक्का विजय के अवसर हिन्द नबी सल्ल. के समक्ष एक पराजित की तरह आई तो नबी सल्ल. ने बस उस स्त्री को अपनी नजरों के सामने से हटा दिया कोई दण्ड नहीं दिया .... 

तो हमने तो इस्लाम से यही सीखा कि क्रूर स्त्रियों के प्रति भी जहाँ तक हो सके विनम्र ही रहें ॥ 
रही बात सही मुस्लिम, किताब 19, नम्बर 4345 की तो वहाँ उम्म किर्फा का कहीं नाम नहीं, और जैसा विरोधी लोगों की गन्दी ज़हनियत ने अन्दाज़ा लगा लिया कि मुस्लिमों ने बनू फज़ारा से अपहरण कर के एक युवती को मक्का के काफिरो को एक गुलाम के रूप मे "बेच दिया" तो वो भी झूठ है .... 

बुखारी शरीफ मे प्रसिद्ध हदीस वर्णित है कि अल्लाह उस व्यक्ति का शत्रु हो जाएगा जो व्यक्ति किसी आज़ाद शख्स को गुलाम बनाकर बेचकर उसका दाम वसूल लेगा , इस हदीस का ज्ञान रखने के कारण निष्ठावान मुस्लिमों ने स्त्रियों या पुरूषों को अपने इतिहास से लेकर आज तक कभी नही बेचा , लोगों को दास बनाकर बेचने की परम्परा औरों की रही है .... .... 

ऐतिहासिक तथ्य ये है कि नबी सल्ल. के समय मे काफिरो से जितने भी युद्ध मुस्लिमों के साथ हुए वो सारे युद्ध मक्का के काफिरो ने शुरू किए, फिर अपने मित्र कबीलो के साथ योजनाएं बना बनाकर किए, बनू फज़ारा भी मक्का के काफिरो के मित्र थे और इस हदीस के पार्श्व मे बनु फजारा ने मक्का वालों के साथ मिलकर युद्ध किए थे जिसके फलस्वरूप अनेक मुस्लिमों को उन्होंने बंधक भी बना लिया था ऐसे ही एक युद्ध मे फज़ारा वालों की जब मुस्लिमों के समक्ष हार हो गई और युद्ध क्षेत्र मे मौजूद स्त्री एवं पुरूषों को मुस्लिमों ने बंदी बना लिया, और हज़रत सलामा रज़ि. को एक युवती दी गई (नौकरानी के तौर पर न कि रखैल के) , 

इसी हदीस मे हज़रत सलामा रज़ि. कम से कम तीन बार ये कसम खाते है कि वो युवती मुझे बहुत पसंद थी मगर मैंने उसके साथ कोई जबरदस्ती नहीं की ... 
उधर अपने मित्र कबीले की इस युवती को आजाद कराने के लिए मक्का के काफिरो ने नबी सल्ल. के साथ समझौता किया, और नबी सल्ल. ने वो युवती जैसी पवित्र वो सलामा रज़ि. के पास आई थी, वैसी ही पवित्र उसके मित्र मक्का वालों को सौंप दी जिसके बदले मे मक्का वालों ने अपने पास पहले हुए युद्ध मे बंधक बनाए हुए मुस्लिमों को रिहा कर दिया .... 
वो युवती मक्का के काफिरो को बेची गई , ऐसा अनुमान गिरी हुई सोच के लोग ही लगा सकते हैं, या उन लोगों को भ्रम हो सकता है जिन लोगों के दिमाग मे पूर्वाग्रह डाल दिया गया हो, लेकिन संतुलित बुद्धि से, और दास व्यापार न करने की इस्लामी शिक्षा को ध्यान मे रखते हुए 
मुस्लिम शरीफ़ की इस हदीस पर सोचा जाए तो स्पष्ट है कि यदि अपने मित्र कबीले बनू फज़ारा की लड़की को खरीद कर मक्का वाले उसे गुलाम बना लेते व उसका यौन शोषण करने लगते तो बनू फज़ारा से मक्का वालों की दुश्मनी हो जाती और मक्का वालों की ये खास प्लानिंग थी कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध रहने वाले सभी गैर मुस्लिम कबीलो से दोस्ती बनाकर रखते थे ताकि मिलकर मुस्लिमों का खात्मा कर सकें, 
जैसा कि अल्लाह पाक ने कुरान मजीद मे फरमाया है कि "ये लोग मुस्लिमों के विरुद्ध एक दूसरे के मित्र हैं,

और तुम देखोगे कि जिनके दिलों मे रोग (मुस्लिमों के लिए दुर्भावना) है वे दौड़ दौड़ कर एक दूसरे से मिले जाते हैं ... " 

अत: मुस्लिमों के खिलाफ मजबूत बने रहने के लिए मक्का वालों ने उस युवती को उसके परिजनो को सौंपने के लिए ही मुस्लिमों से मांगा था.... 

अत: ये भी सिद्ध है कि इस्लाम का कोई भी नियम कायदा कभी ऐसा नहीं रहा जिससे किसी स्त्री की मर्यादा या प्राणो को जरा भी नुकसान पहुंचने की आशंका रही हो ॥

इस्लाम को बदनाम करने के लिए फेलाई जा रही हदीश की समीक्षा पार्ट -3(पति पत्नी के बिच सम्बन्ध)

कुछ लोग इस्लाम का अपमान करने के लिए पति पत्नी के बीच नैसर्गिक सम्बन्धो की हदीसो मे चर्चा को तोड़ मरोड़ कर बेहद अश्लील ढंग से वो बातें सबको सुनाते हैं,

जैसे कुछ लोग इण्टरनेट पर कहते मिलते हैं कि सही मुस्लिम किताब 8 हदीस 32443 मे ऐसा लिखा है कि औरतें सदा संभोग के लिए तैयार रहें, जिहादी पति इनसे कभी भी सम्भोग कर सकते हैं..... 

अव्वल तो बात ये है कि मुस्लिम शरीफ़ की किताब आठ मे इस नम्बर की कोई हदीस कहीं है ही नहीं , बल्कि सही मुस्लिम किताब 8, हदीस नम्बर 3240, 3241 और 3242 पर जो अहादीस दर्ज हैं , उनमें बेहद साफ साफ ये ही बात लिखी है कि जब किसी पराई औरत का सौन्दर्य और उकसाने वाली हरकतों को देखकर किसी पुरुष का मन डोलने लगे, उस स्त्री से व्यभिचार के विचार दिल मे आने लगें तो पुरुष को कि कोई भी गलत काम करने से बचते हुए, अपने घर लौट आना चाहिए 
और अपनी पत्नी का संसर्ग कर के मन मे आई व्यभिचार की भावना को पूरा ही खत्म कर डालना चाहिए.... 
तो यहाँ तो पराई स्त्रियों से बचने की एक बेहद अच्छी तालीम दी गई है और सबको अनदेखा कर के केवल अपनी वैध पत्नी से ही यौन सम्बन्ध बनाने की अच्छी बात कही गई है, इन लोगों को उसमें भी बुराई नजर आ गई ?? 

हंसी आती है ये देखकर कि इस्लाम मे विवाह संस्था के अन्दर पति पत्नी के बीच सेक्स का होना तो इन लोगों को अश्लील और आपत्तिजनक दिखता है, लेकिन लिव इन रिलेशन, और सेरोगेसी जैसी चीजों की यही लोग वकालत करते हैं । ..... 
इन लोगों की बातों से तो लगता है कि हमारे समाज मे पति पत्नी भी आपस मे सेक्स के लिए तैयार होने को पाप मानते होंगे, मगर हमारे देश मे लगातार बढ़ते हिंसक बलात्कारो और व्यभिचारो के मामले साफ पता देते हैं, कि यहाँ के लोग कितने शर्मीले और पुण्यात्मा हैं ...!! 

मेरे भाईयों अगर समाज मे पति और पत्नी के बीच वैसी ही ईमानदारी न बनाई जाए जैसी इस्लाम मे सिखाई गई है तो फिर उस समाज मे वैसा ही व्यभिचार और नंगापन फैल जाता है जैसा अमेरिका और योरोप मे फैल चुका है और भारत मे फैल रहा है ॥ 
रही आपकी ये कल्पना कि औरतें सदा सेक्स के लिए तैयार बैठी रहेंगी और मर्द बाहर से आते ही उनसे जानवर की तरह लिपट जाएंगे, तो जनाब ये आपकी कोरी कल्पना है, इस्लाम मे जानवरों की तरह औरत के पास जाने वालों के लिए कोई जगह नही है । 
इस्लाम मे ज़िन्दगी के हर पहलू, यानि चलने बोलने खाने पीने, प्यार करने, दाम्पत्य मे संवाद, यानि हर चीज का सबसे अच्छा सलीका सिखाया गया है ... 
घर आते ही अपनी बीवी पर जानवर की तरह कूद पड़ने वाले कोई और होंगे, .... जिस तरह मुसलमान को ये सिखाया गया कि बेपर्दा पराई स्त्रियों के आमन्त्रण पर भी पुरुष अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण रखे, उसी तरह अपने घर मे लौटकर भी सही समय आने तक खुद पर नियंत्रण रखेगा ... 
घर के बाकी सदस्यों से शर्म करेगा, और पत्नी के तैयार होने की प्रतीक्षा भी करेगा । 
नबी सल्ल. ने फरमाया "तुम लोग अपनी बीवियों पर (सम्बन्ध बनाने मे) सीधे जानवरों की तरह मत गिर जाया करो, बल्कि अपनी पत्नी को इस विषय मे पहले किन्हीं माध्यमों से सूचित किया करो ... 
सहाबा ने पूछा किन माध्यमों से ? आप सल्ल. ने मुस्कुरा के फरमाया प्रेम की बातों या चुंबन से " 

उम्मीद है , भाईयों की गलतफहमी दूर हुई होगी ॥ धन्यवाद

इस्लाम में औरत को तलाक लेने का अधिकार हे ..@

कुछ दिन पहले टीवी पर एक क्रिश्चियन महिला समाज सेविका का इण्टरव्यू देखा जो किसी समय मे जबरदस्त घरेलू हिंसा की शिकार रही थीं, 
ये जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि पति द्वारा इतनी क्रूरता से अकारण पिटाई करने, अंग भंग और हत्या तक कर देने की स्थिति मे भी 30 वर्ष पहले तक देश मे एक ईसाई महिला को अपने पति से तलाक लेने का अधिकार नहीं था (अब शायद मिल गया हो, मुझे इस विषय मे जानकारी नहीं).... 

इसी तरह हिंदू महिलाओं को भी हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 से पहले कितनी भी पीड़ादायक स्थिति मे अपने पति से तलाक लेकर खुद को सुरक्षित कर लेने का अधिकार नहीं था ... 
फिर मैं देखता हूँ, इस्लाम धर्म की ओर, जिसमें शुरू से ही पुरूषों के साथ साथ स्त्रियों को भी ये आजादी है, कि जब वैवाहिक जीवन दुर्भाग्यवश इतना अप्रिय और असहनीय हो जाए कि साथ रहना मुश्किल हो जाए तो ऐसे अप्रिय सम्बन्धो का बोझ ढोते रहने की बजाय पति और पत्नी एक दूसरे से सम्बन्ध विच्छेद कर के अपना जीवन नए सिरे से शुरू कर सकते हैं । 
अन्य धर्मों मे जहाँ तलाक का विधान नहीं था ऐसे दुष्कर हो चुके सम्बन्धो मे पति या पत्नी की हत्या तक करने कराने की नौबत आ जाती थी, ... 
उसके मुकाबले मे तलाक एक बेहद बेहतर ही मार्ग था ... लेकिन उसके बावजूद तलाक को भी स्त्रियों पर अत्याचार के रूप मे ही प्रचारित किया गया .... 

निसन्देह ये बात स्वीकारनी होगी कि वास्तव मे कुछ अनपढ़ जाहिल मुस्लिमों ने भी तलाक को केवल पुरूषों को मिला अधिकार समझ लिया और फिर इसे स्त्रियों को सताने का एक साधन ही मान लिया... ...

और छोटी छोटी बातों मे भी तलाक के डर की ये तलवार पूरे जीवन उनके सर पर लटकाए रखी...और कई बार अकारण ही तलाक देकर बहुत सी निर्दोष स्त्रियों के जीवन बरबाद कर डाले.... 

परंतु ये तलाक (एक ही बैठक मे दिया जाने वाला तलाक) इस्लामी नियमों के अनुरूप नहीं बल्कि इस्लाम का खुला उल्लंघन थे, ये भी तथ्य है, निश्चय ही ऐसे दुष्ट लोगों को अपने कर्म भुगतने पड़ेंगे, जिन्होने तलाक को मजाक बनाने की कुचेष्टा की वास्तव मे तलाक की व्यवस्था विशेषकर स्त्रियों की सुरक्षा के लिए दी गई है कि क्रूर पति से स्त्री स्वयं ही छुटकारा ले सके या यदि पति को अपनी स्त्री से दुश्मनी हो जाए तो स्त्री को अन्य कोई हानि पहुंचाने के स्थान पर वो उससे शांति से अलग हो जाए.... 

लेकिन तलाक की व्यवस्था पर अतिक्रमण कर के जिस तरह पुरूषों ने अपनी सुविधा से तलाक का उपयोग और दुरुपयोग करने की परिपाटी बना ली वो निश्चित ही निन्दनीय और बड़ा अपराध है .... लेकिन कुछ जाहिलों की मूर्खता या निरन्तर दुष्प्रचार के बावजूद तलाक का विधान अनुपयोगी या अन्यायपूर्ण सिद्ध नहीं हो जाता, ये बात उपरोक्त पहले बताए कारणों को देखकर समझ मे आ जाती है बहुत से लोगों को ये गलतफहमी है कि इस्लाम मे अपने पतियों को एकतरफा तलाक देने का स्त्रियों को पुरूषों की तरह का हक हासिल नहीं है .... पर ये खयाल सही नहीं.... ॥ 

शरीयत मे कुरआन, हदीस और फिक्ह के आधार पर तलाक के दस तरीके प्रचलित हैं :- 
TaLaq e Ahsan, TaLaq e hasan, TaLaq_e_Tafweez, TaLaq ul Biddat ,ILa Jihar, khuLa , Lian,  Fasq और Mubarat ! 

यहाँ जिन पांच नामों को मैंने टैग किया है, उनमें बीवी को अपनी मर्जी से पति से तलाक लेने का हक हासिल है, जबकि मुबारत के अलावा जो चार नाम टैग नहीं किए, उनमें पति को अपनी मर्जी से बीवी को तलाक देने का हक है ॥

 इनमें खुला वो तलाक है जो पत्नी अपने पति को पति की मर्जी के खिलाफ, केवल अपनी मर्जी से देती है, कुरान 4:128 और 2:229 मे ये व्यवस्था है कि यदि पति से स्त्री को हानि पहुंचने का भय हो तो वो तलाक (खुला) ले सकती है ॥ 

अत: पति से अलगाव हासिल करने को पत्नी मेहर की रकम जो उसे पति से मिलने वाली थी वो छोड़ देती है, खुला की व्यवस्था मे पति यदि पत्नी को तलाक न भी देना चाहे तो भी शरीयत आधारित न्यायाधीश परिस्थितियों को देखकर पत्नी की इच्छा को ही वरीयता देकर उसे खुला दिलवा देता है । 

लेकिन यदि पत्नी पति से अपनी इच्छा से तलाक भी लेना चाहती हो और पति से एलिमनी भी हासिल करना चाहती हो तो स्त्री की मदद के लिए शरीयत मे चार तरीके और मौजूद हैं जिनके नाम ऊपर मैंने टैग किए हैं । इन मे औरत अपने पति की किसी अनुचित हरकत को आधार बनाकर (जिन्हें आधार बनाने की शरीयत मे अनुमति हो) तलाक का दावा करती है, 
साथ ही तलाक मिलने पर एलिमनी पाने की भी हकदार होती है ॥ 
मुबारत मे पति, पत्नी की आपसी सहमति से तलाक होता है, तो इसमें एक सम्भावना ये भी होती है कि पत्नी अपनी इच्छा से एलिमनी छोड़ दे, खैर 10 मे से 9 तरीकों मे पत्नी को पति से भरण पोषण पाने का हक है, यदि मुबारत मे पत्नी मेहर पति पर माफ कर दे तो गिनती 8 रह जाती है पर पति को 10 मे से एक तलाक मे भी भरण पोषण पाने का अधिकार नहीं ... 
हां विरल परिस्थितियों मे खुला मे कभी कभार पति कुछ हर्जाना पा सकता है, पर सामान्यतः खुला मे पति को इतनी ही सुविधा मिलती है कि उसे पत्नी को मेहर नहीं देना पड़ता ... 

ज़रा गिन कर बताईए ,यहाँ किसके अधिकार ज्यादा हैं, पति के या पत्नी के ?? कुछ लोग इतना सब जानकर भी शब्दजाल फैलाते हैं, और कहते हैं कि इस्लाम मे स्त्रियों के साथ अन्याय तो इसी बात से दिख जाता है कि पुरुष तो स्त्री को तलाक "देता" है, जबकि स्त्री पुरुष से तलाक "मांगती" है .... 

वैसे कोई मुझे ये बताएगा कि केवल शब्दों के इस फेर से किसी पर क्या अन्याय हुआ ?? अधिकार तो स्त्रियों को पूरे ही मिले न ?? 
जी हां मांगना और देना दो अलग शब्द हैं उसका कारण ये है कि तलाक के बाद पत्नी को एलीमनी पति देगा , जबकि पत्नी तलाक मांगेगी क्योंकि उसे तलाक के बाद पति से एलीमनी पाने का भी अधिकार चाहिए ... 
पति पत्नी को तलाक के बाद भरण पोषण देने को सदैव बाध्य रहता है, सिवाय तब के जब पत्नी स्वयं ही भरण पोषण का दावा छोड़ दे जबकि पति किसी भी हाल मे तलाक मे कोई भरण पोषण पाने का अधिकारी नहीं होता... .....

 क्या आपको ये नहीं दिखाई देता कि इस्लाम ने स्त्रियों को मेहर प्राप्ति का पुरूषों की अपेक्षा एक अतिरिक्त अधिकार दिया हे।
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इस्लाम को बदनाम करने के लिए फेलाई गयी जूठ हदीश की समीक्षा पार्ट -2

कुछ हदीसो की गलत तरीके से व्याख्या कर के ये सिद्ध करना चाहते हैं कि इस्लाम मे पत्नी को पीटने की शिक्षा दी गई है ... आइए देखें इन आरोपों मे कितनी सत्यता है 1• पहला प्रमाण हदीस मे वाइफ बीटिंग का दिखाया जाता है सही मुस्लिम 4/2127 मे मां आएशा रज़ि. का ये बयान कि "नबी सल्ल. ने मेरे सीने पर मारा, जिससे मुझे दर्द हुआ " उत्तर - इतनी सी बात पढ़कर ऐसा ही लगता है जैसे नबी सल्ल. ने माज़अल्लाह मां आएशा रज़ि. को पीटा हो, परंतु जब आप ये हदीस पढ़ते हैं तो पाएंगे कि यहाँ कोई विवाद नहीं हो रहा था जिसमें मारपीट की नौबत आए, बल्कि अल्लाह के आदेश पर रात को चुपचाप घर से निकले नबी सल्ल. का पीछा मां आएशा रज़ि. ने किया था, ये जानकर नबी सल्ल. को स्वाभाविक ही दुख हुआ कि अपनी जिन पत्नी को नबी सल्ल. दिलोजान से प्रेम करते थे उन पत्नी ने ही नबी सल्ल. की जासूसी की, और इस हदीस की व्याख्या करते हुए इमाम नानवी ने लिखा है कि शब्द "ल-ह- दा" का सही अर्थ मारना नहीं बल्कि धकेलना है तो नबी सल्ल. ने मलाल के तौर पर मां आएशा को धक्का दिया जिससे मां आएशा को शारीरिक पीड़ा नहीं बल्कि मानसिक पीड़ा हुई, पश्चाताप स्वरूप इस स्थान पर कोई मारपीट नहीं हुई थी इस बात की पुष्टि बहुत बेहतर तरीके से अम्मी आएशा रज़ि. के इस बयान से हो जाती है कि "नबी सल्ल. ने कभी भी किसी को भी अपने हाथ से नहीं मारा, सिवाय तब के जबकि आप सल्ल. अल्लाह की राह मे जंग कर रहे थे, और न ही कभी आप सल्ल. ने किसी गुलाम या किसी स्त्री पर हाथ उठाया " (इब्ने माजाह, अल्बानी ने इसे सही प्रमाणित किया) 2• दूसरी हदीस बुखारी 72/715 , कि "एक स्त्री ने अपने पति द्वारा की गई पिटाई की शिकायत मां आएशा से की तो नबी सल्ल. ने उल्टा उस स्त्री को ही घर लौटकर अपने पति की शारीरिक इच्छा की पूर्ति करने का आदेश दिया " उत्तर - यहाँ भी हदीस पढिए पहले ये स्त्री आकर अपने पति की शिकायत मां आएशा रज़ि. से करती है, लेकिन जब ये स्त्री अपने पति समेत नबी सल्ल. के सम्मुख प्रस्तुत होती है तो ये नहीं कहती कि उसका पति उसे पीटता है, बल्कि वो स्त्री एक बड़ा और गम्भीर झूठ बोलती है कि उसका पति नपुंसक है और उसके लिए बेकार है ... लेकिन उसके पति के साथ मे उस समय पति की दूसरी पत्नी से पैदा हुए पुत्र थे, जिस कारण उस स्त्री का झूठ पकड़ा गया, उस स्त्री के पति ने कहा कि मुझमे ऐसी कोई कमी नहीं, बल्कि असल मे ये स्त्री मुझे तलाक देकर अपने पूर्व पति से शादी करना चाहती है, इसलिए मुझपर झूठे आरोप लगा रही है (ताकि अदालत द्वारा उसे एकतरफा तलाक मिल जाए) यहाँ ये भी प्रश्न उठता है कि यदि वो स्त्री सचमुच पति द्वारा पिटाई से पीड़ित थी, तो पति के नपुंसक होने का झूठ क्यों बोला, पति द्वारा क्रूरता के आधार पर वो आसानी से खुला ले सकती थी क्योंकि कुरान 4:128 और 2:229 मे ये व्यवस्था है कि यदि पति से स्त्री को हानि पहुंचने का भय हो तो वो तलाक (खुला) ले सकती है ॥ पर उस स्त्री ने नबी सल्ल. के सम्मुख ये बात नहीं उठाई, इससे तो यही सिद्ध होता है कि पति द्वारा अत्याचार करने का उसका आरोप भी उसी तरह झूठ था जैसे पति के नपुंसक होने का आरोप झूठ था .... उस स्त्री की मंशा जानकर नबी सल्ल. ने उस स्त्री को ये समझाया कि यदि वो इस प्रकार बिना सम्बन्ध बनाए दूसरे पति से खुला ले भी लेगी, तो भी पहले पति से दोबारा विवाह करना उसके लिए वैध नहीं होगा जब तक वो किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध बनाने के बाद तलाक नहीं ले लेती ... इस वैधानिक सलाह को गलत अर्थ मे लेकर ये आरोप लगा दिया गया कि नबी सल्ल. ने उस स्त्री को घर लौटकर अपने पति की शारीरिक इच्छा पूर्ति करने का आदेश दिया, अब क्योंकि इस हदीस मे मारपीट के विषय मे पति पत्नी ने कोई बात ही न की इसलिए ये कहना कतई न्यायोचित नहीं होगा कि नबी सल्ल. ने मुस्लिम पतियों को अपनी पत्नियों को पीटने की शिक्षा दी है..... पत्नी को पीटने के विषय मे नबी सल्ल. ने क्या फरमाया है वो आप अनेकों हदीसों मे पढ़ सकते हैं कि नबी सल्ल. ने मुस्लिमों को स्पष्टत: हुक्म दिया अपनी पत्नियों को पिटाई न करो (सुनन अबू दाऊद, किताब-11, हदीस-2137, 2138 और 2139 ) 3• मुस्लिम 9/3506, "नबी को प्रसन्न करने के लिए हज़रत अबूबक्र रज़ि. और उमर रज़ि. ने अपनी पुत्रियों (नबी सल्ल. की पत्नियों ) को थप्पड़ मारे, जिसपर नबी सल्ल. हंसे ॥" उत्तर - इसी हदीस मे लिखा है कि ये एक स्वांग था न कि कोई गम्भीर विवाद, नबी सल्ल. अपनी पत्नियों के साथ उदास बैठे थे अत: जब वहाँ हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर रज़ि. पहुंचे तो माहौल को बोझिल देखकर हज़रत उमर ने मज़ाक करने की सोची और इस मज़ाक मे हज़रत अबूबक्र भी शामिल हो गए, और अपनी बेटियों को चपत लगाने का केवल नाटक किया, ऐसी हंसी मज़ाक को वाइफ बीटिंग को अनुमति कोई कैसे समझ सकता है ?? 4 और 5• अबू दाऊद 11/2141 मे नबी सल्ल. ने पत्नियों को पीटने की अनुमति दी और अबू दाऊद 11/2142 के अनुसार हजरत उमर रज़ि. ने फरमाया कि नबी सल्ल. ने फरमाया कि एक पति से इस बात का प्रश्न नहीं किया जाएगा कि उसे अपनी पत्नी को क्यों पीटा " उत्तर - अबू दाऊद 11/2141 मे लिखा है कि नबी सल्ल. मुस्लिमो से फरमाते थे कि अल्लाह की भक्तों (पत्नियों) को न पीटो, इस पर हज़रत उमर रज़ि. ने आशंका व्यक्त की कि यदि इस तरह स्त्रियों को अपने पतियों से सख्त व्यवहार का बिल्कुल भी भय नहीं रह जाएगा तो वे बहुत से अनैतिक कार्य करने से भी नहीं डरेंगी तब अति गम्भीर मामलों यथा व्यभिचारोन्मत्त ता आदि के मामलों मे परिवार टूटने से बचाने को नबी सल्ल. ने पति को थोड़ा सख्त व्यवहार अपनाने की अनुमति दी है, और अबू दाऊद शरीफ़ 11/2142 मे हज़रत उमर का बयान भी इसकी पिछली हदीस यानी 11/2141 के परिप्रेक्ष्य मे ही है कि व्यभिचार आदि के गम्भीर मामले मे यदि पति पत्नी पर हलका दण्ड देने को हाथ उठाएगा तो इस कारण पति पर पाप नहीं होगा ... लेकिन कुरान 4:34 की अनुमति के अतिरिक्त यदि पति अकारण ही पत्नी को पीटेगा, या छोटी मोटी गलतियों पर पत्नी को प्रताड़ित करेगा तो जरूर ही गम्भीर दण्ड का भागी होगा, ये बात कुरान और अन्य हदीसों से भली भांति स्पष्ट है ॥ 6• अबू दाऊद 11/2126 "एक पति को अपनी पत्नी को छड़ी से मारने का आदेश नबी सल्ल. ने दिया, क्योंकि वो स्त्री विवाह के पहले ही गर्भवती थी किसी और पुरुष से " उत्तर - इस हदीस मे स्पष्टत: पता चलता है कि उस स्त्री को व्यभिचार का दण्ड दिया जाने का आदेश था, न कि घरेलू हिंसा का आदेश ॥ शरीयत मे विवाह पूर्व व्यभिचार मे लिप्त पाए जाने वाले स्त्री पुरूषों को सार्वजनिक तौर पर 100 कोड़े मारने का दण्ड इसलिए निर्धारित है ताकि समाज मे अव्यवस्था न फैले लेकिन इसी हदीस मे उस व्यभिचारी स्त्री को तन्हाई मे दण्डित करने और उसे व उसकी होने वाली सन्तान को पाल लेने का आदेश नबी सल्ल. ने देकर समाज मे उस स्त्री की मर्यादा भी रख ली और उसे सम्मान से जीने का अधिकार भी दिला दिया... ज़रा सोचकर बताईए कौन से समाज के पुरुष अपनी सुहागरात मे दुल्हन को गर्भवती पाकर उसे छोड़ने की बजाय उसे अपना लेने लायक दिल बड़ा कर सकते हैं ?? शायद ही कोई ॥ सार यही निकल कर आता है कि हदीस मे भी पुरुष को कहीं भी अपनी पत्नी की पिटाई करने की अनुमति नही है, और यदि कहीं व्यभिचार आदि जैसे गम्भीर मामले मे पति को थोड़े सख्त व्यवहार की अनुमति है तो वो हिंसा के लिए नहीं बल्कि परिवार को टूटने से बचाने को है, परंतु सामान्यतः पति को बर्दाश्त कर लेने और पत्नी से भला व्यवहार करने की ही शिक्षा दी गई है !!

इस्लाम को बदनाम करने के लिए फेलाई जा रही गलत हदीश की समीक्षा पार्ट -1(औरत की पिटाई का हुक्म)

बहुत से मुस्लिम और गैरमुस्लिम लोगों का ख्याल है कि बीवी को काबू मे रखने के लिए और उससे अपनी जायज़ नाजायज बातें मनवाने के लिए बीवी की पिटाई करने का हक मुस्लिम पुरूषों को कुरान ने दिया है ... लेकिन ये ख्याल रखना कुरान पर एक बड़ा झूठ बांधना है ... 

छोटी मोटी बातों पर बीवी पर हाथ उठाने की इजाज़त कुरान पाक कतई नहीं देता, बल्कि ऐसे मौकों पर अपने आप पर काबू रखने का हुक्म ही कुरान और हदीस ने शौहर को दिया है क्योंकि जैव वैज्ञानिक आधार पर हर पुरुष की बनावट स्त्री के मुकाबले अधिक शक्तिशाली व स्वभाव आक्रामक रहता है, इस बात को ध्यान मे रखते हुए कि अन्य पुरूषों की तरह मुस्लिम पुरुष भी अपनी स्त्रियों पर अत्याचार और हिंसा न करने लगें, अल्लाह ने बड़ी ज़िम्मेदारी मुस्लिम पुरूषों को सौंपी कि वे अपनी पत्नी की नापसन्दीदा बातों को अनदेखा कर दें, और अपनी पत्नी से भला व्यवहार करते रहें पवित्र कुरान मे अल्लाह का फरमान है कि ... 

"अपनी पत्नी के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। और यदि वो तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो लेकिन दूसरी ओर अल्लाह ने उसमें बहुत कुछ भलाई रखी होगी," (सुरा 4 आयत 19) 

इसी तरह आप स. की ये हदीस शरीफ हजरत अबू हुरैरा से रिवायत है, नबी (सल्ल0) ने फरमाया, 
"अपनी औरतों के साथ भला सुलूक किया करो, इसलिये कि औरतें पसली से पैदा की गई हैं और पसली टेढ़ी होती है, अगर तुम पसली सीधी करना चाहोगे तो वह टूट जायेगी और अगर उसी तरह छोड़ दोगे तो वो टेढ़ी ही रहेगी, तो तुम औरत को जैसी वो है वैसी ही रखकर उससे काम ले सकते हो, इसलिए औरत के साथ अच्छा व्यवहार किया करो" [ बुखारी शरीफ किताब 55, नम्बर 548: और बुखारी, किताब 62: नम्बर 113 ] 

अक्सर स्त्रियों पर इसी कारण से तो अत्याचार हो जाते हैं कि मर्द खुद को औरत का मालिक समझकर, अपनी पत्नी की अस्ल शख्सियत और उसकी पसंद नापसन्द को दबाकर उसको अपनी मर्ज़ी का गुलाम बनाकर जीना चाहता है .... 
लेकिन प्यारे नबी स. ने मुसलमानों को अपनी बीवियों के साथ ये ज़ुल्म करने से रोक दिया है.. आप स. ने फरमाया कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी गुलाम नहीं बल्कि तुम्हारी पार्टनर हैं ... 
अल्लाह ने कुरान पाक मे फरमाया कि अपनी पत्नियों को नुकसान पहुंचाने की बात मत सोचा करो (2:231) और आप सल्ल. ने पत्नियों के अधिकारों का वर्णन करते हुए हुक्म दिया अपनी पत्नियों को पिटाई न करो (सुनन अबू दाऊद, किताब-11, हदीस-2137, 2138 और 2139 ) 
तो ज़ाहिर है बीवी पर मालिकाना जताने, बीवी को दबाने या बात न मानने पर उस को पीटना इस्लाम मे तो हरगिज़ नहीं इस्लाम ने मुस्लिम पत्नियों को अन्यायपूर्ण मारपीट से बचा लिया है, लेकिन समाज मे ऐसे भी बहुत से केस ऐसे भी देखने मे आते हैं कि पति तो सज्जन होता है, पर पत्नी ही अपनी अनुचित महत्वाकांक्षाओं के चलते पति को परेशान करती रहती है, ऐसे मे अपनी जैविक बनावट के चलते शरीफ़ से शरीफ़ पति का हाथ भी स्त्री पर उठ सकता है, अत: स्त्रियों को भी इतना समझदार होना चाहिए कि यदि पति उनकी कुछ कमियों को नजरअंदाज करता है, तो वे भी पति को किसी मामूली बात के लिए अकारण उत्तेजित न करें, चूंकि विवाह संस्था को एकतरफा प्रयास नहीं बल्कि आपसी समझदारी ही सफल बनाती है 
पवित्र कुरान 4:34 मे भी पत्नी द्वारा ऐसा ही एक बेहद गलत और अनुचित कदम उठाने की दुर्लभ और एकमात्र परिस्थिति यानि पर-पुरूष गमन मे उसे दण्ड देने की अनुमति पति को है .. 
एवं इस मामले के अतिरिक्त किसी मामले मे स्त्री पर हाथ उठाने को इस्लाम से कतई नही जोड़ा जा सकता याद रखिए पर पुरुष गमन/व्यभिचार वही परिस्थिति है जिसके केवल संदेह मे पत्नी को जिन्दा जला देना, पत्नी की हत्या कर डालना, पत्नी का परित्याग कर डालना कई धर्मों के अनुसार आदर्श व्यवहार था ... 

मुस्लिम पुरूष ऐसा होता अनुभव करे, तो उसे क्या आदेश दिया गया है वो यहाँ देखिए : 
"पति पत्नियों के रक्षक और भरण-पोषण करने वाले है, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है, और इसलिए भी कि पतियों ने (पत्नियों के भरण-पोषण पर) अपने माल ख़र्च किए है, तो नेक पत्ऩियाँ तो आज्ञापालन करनेवाली होती है और गुप्त बातों की रक्षा करती है, क्योंकि अल्लाह ने उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियों ऐसी हो जिनके सीमा पार करने का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें दण्ड दो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगे, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूढ़ो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है ॥" (4:34) 

इस आयत मे पत्नियों से गुप्त बातों (सतीत्व) की रक्षा करने की अपेक्षा का ज़िक्र फिर किसी स्त्री द्वारा सीमा पार करने की आशंका पर सुधारात्मक कदम उठाने की बात से ये स्पष्ट है, कि पति द्वारा पत्नी को हलका दण्ड देने की अनुमति सिर्फ और सिर्फ बेहद गम्भीर परिस्थिति मे तब है जब पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के साथ व्यभिचारोन्मत्त हो रही हो ... 
और उसे बातचीत से, और फिर नाराजगी दिखाकर बात समझाने के उपाय विफल हो चुके हों ... 
तब इसलिए कि परिवार टूटने से, व स्त्री शरीयत द्वारा नियत वैवाहिक व्यभिचार के मृत्युदण्ड से बच जाए, पति को अनुमति है कि वो अपनी पत्नी को हलका दण्ड दे सकता है ... 
और ये दण्ड देते समय उसे ध्यान रखना है कि पत्नी को चोट न लगे बल्कि पत्नी केवल शर्मिन्दा हो और क्योंकि अल्लाह का फरमान है कि पति और पत्नी एक दूसरे का लिबास हैं, यानी एक लिबास की ही तरह उन पर एक दूसरे की शर्म छिपाने और इज़्ज़त रखने की ज़िम्मेदारी है , इसलिए ये दण्ड इस बात की आखिरी कोशिश के रूप मे दिया जाए, कि शायद इसके बाद पत्नी मामले की गम्भीरता को समझे, और व्यभिचार से खुद को रोक ले, और इस बात और दण्ड की जानकारी पति पत्नी के अतिरिक्त किसी और को न हो, किसी तीसरे को इस अपमानित करने वाली बात का पता न चले और पत्नी का सम्मान समाज मे बना रह जाए ॥ 

वैसे मारने के लिए जो शब्द "इदरिबुहूना" इस आयत मे आया है , इस शब्द का रूट "द,र,ब" है और इसका एक और अर्थ होता है, "छोड़ना".... 
अत: कुछ विद्वानों का मत ये भी है कि इस आयत मे पत्नी पर हाथ उठाने की बात नही बल्कि सुधारात्मक उपाय के तौर पर पत्नी को अपने से अलग कर देना है .... खैर, हम इदरिबुहूना का अर्थ शारीरिक दण्ड भी लें तब भी मुझे कोई समस्या नजर नहीं आती, चूंकि मामला व्यभिचार की ओर बढ़ने का है, जिसकी सख्ती से रोकथाम न की जाए और विवाहित स्त्री या पुरुष कोई भी व्यभिचार कर बैठे तो वो शरीयत के अनुसार मौत की सजा के अधिकारी हो जाएंगे, 
अत: अपने प्रिय की जान बचाने को थोड़ा सख्त कदम उठाना भी गलत नहीं माना जा सकता सोशल मीडिया पर अक्सर कुछ ऐसे फोटो देखता हूँ कि खुली सड़क पर एक तथाकथित मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को पीट रहा है, इस फोटो को इस्लामी कानून की परिणति बता कर इस्लाम को अपमानित किया जाता है, 
जबकि वो फोटो इस्लामी शिक्षा का खुला उल्लंघन है, क्योंकि वो आदमी अपनी पत्नी की इज़्ज़त नहीं रख रहा बल्कि सरे बाजार अपनी पत्नी का अपमान कर रहा है इसी तरह कुछ बुरी तरह लहूलुहान स्त्रियों के फोटो डालकर ये दावा किया जाता है कि इन स्त्रियों को इनके पतियों ने शरीयत के अनुसार पीटकर अधमरा कर डाला है, .... ... 
ये भी इस्लाम पर निराधार आरोप है क्योंकि कुरान सिर्फ एक बेहद गम्भीर और अपमानजनक परिस्थिति मे ही पत्नी को दण्ड और वो भी गम्भीर दण्ड नहीं बल्कि ऐसा दण्ड देने की अनुमति देता है, जैसे एक मां अपने जिद्दी बच्चे को आग से खेलने से रोकने के लिए मारती है, ये ध्यान मे रखते हुए कि बच्चे को चोट न लगे, बस वो मलाल मे आकर खतरे वाले काम से खुद को रोक ले ... 
उसी तरह प्रेमी पति से भी अपेक्षा है कि वो अपनी स्त्री को तबाह होने से बचाने को थोड़ी सख्ती दिखाएगा, जैसे मां की मार हिंसा नहीं कहलाती, वैसे ही 4:34 की अनुमति भी हिंसा नहीं है याद रखिए ये किसी तरह की जबर्दस्ती नहीं, बल्कि केवल एक पाप, व्यभिचार यानी पत्नी पति के साथ रहना चाहते हुए किसी और पुरुष से भी अनुचित सम्बन्ध बनाना चाहे, 
इस स्थिति को खत्म करने का एक विकल्प है, पर यदि ऐसा हो कि स्त्री की अपने वर्तमान पति के साथ निभ न रही हो और वो किसी दूसरे पुरुष से विवाह करना चाहती हो, तो वो पत्नी न्यायिक आधार पर मेहर लौटाकर खुला लेने को पूरी तरह स्वतंत्र है, और यदि ये स्थिति आए तो एक समर्पित मुस्लिम से ऐसे मामले, या और किसी भी मामले मे ये अपेक्षा नहीं है कि वो अपनी पत्नी को जरा भी पीड़ा दे, ... 

इस्लाम में ""तलाक ए बिद्द्त ""का असल मकसद क्या...?

एक बैठक मे तीन बार तलाक के शब्द उच्चारित कर के अपनी स्त्रियों को तलाक दे देने का तरीका नबी स. से पूर्व अरब मे प्रचलित था, लोग जब तब अपनी पत्नी को छोटी मोटी बातों पर महज़ मज़ा चखाने के लिए तलाक देकर छोड़ देते ... और फिर जब कभी दिल मे आता तो फिर उसी स्त्री से विवाह कर लेते, यानी औरत की जिन्दगी हमेशा डांवाडोल ही रहती । उसे कुछ पता न रहता कि कब किस बात पर उसका पति उसे तलाक दे देगा, और फिर कभी अपनाएगा भी या नहीं ... इस्लाम ने सबसे पहले तो इस एक बैठक मे तलाक देने की कुप्रथा को खत्म किया, और तलाक की प्रक्रिया को तीन महीने लम्बा बनाया जिस समय मे किसी भी वक्त तलाक का फैसला वापस लिया जा सकता है ... और तलाक के फैसले पर कई बार पुनर्विचार कर के उसको टालने की सम्भावना बढ़ाई जा सकती है, अफसोस कि आज के समय अधिकतर भारतीय व पाकिस्तानी मुस्लिम इस विषय मे जागरूक नहीं हैं ... दूसरा विधान इस्लाम ने तलाक की प्रक्रिया को जटिल बनाने के लिए और स्त्री को आर्थिक सम्बल देने के लिए मेहर की रकम तय करने का बनाया, और तीसरा विधान हलाला का रखा गया जिससे एक बार तलाक के बाद दोबारा विवाह लगभग नामुमकिन सा हो जाए जिस अंदेशे को जानकर तलाक की सुविधा का गलत इस्तेमाल पुरुष स्त्रियों को सताने के लिए न कर सके एक बैठक (एक समय मे) में तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने का ये तरीका यानी 'तलाक उल बिदअत' सभी इस्लामी विद्वानों के अनुसार पापकर्म है ... और अल्लाह व रसूल स. का हुक्म यही है कि तलाक कुछ क्षणों मे घटित होनेवाली दुर्घटना न बन सके बल्कि तलाक तब ही पूर्ण हो सके जब वास्तव मे पति और पत्नी साथ जीवन बिताना बिल्कुल न चाहते हों ... पवित्र कुरान मे आदेश है कि तलाक तीन महीनों की अवधि मे जा के पूर्ण हो, इससे पहले किसी भी पल तलाक का विचार त्यागा जा सकता है, और पति पत्नी पहले की तरह सामान्य रूप से साथ रह सकते हैं, यदि तीन महीने पूरे होने से पहले वो तलाक का विचार छोड़ दें सही बुखारी शरीफ़ मे Book of Divorce, यानी किताब 63 में अलग अलग चेन्स से नम्बर 178,179, और 184 पर एक हदीस बयान की गई है कि हजरत इब्ने उमर रज़ि. ने अपनी पत्नी को एक बैठक मे तलाक दे दिया (और उनकी पत्नी अपने मायके चली गईं ) जब हजरत इब्ने उमर के पिता यानी हजरत उमर बिन खत्ताब रज़ि. ने इस विषय मे नबी स. से पूछा तो आप स. ने फरमाया कि अपने बेटे से कहो कि वो अपनी पत्नी को वापस घर बुलाए और तीन तुहर की अवधि तक पास रखे व इतनी मुद्दत मे यदि चाहे तो तलाक का विचार त्याग कर अपनी पत्नी को साथ रख ले, और यदि तलाक ही देना चाहे तो इन तीन महीनों की अवधि मे बिना अपनी पत्नी से सम्बन्ध बनाए उसे भले तरीके से विदा कर दे, तो ये रहा हदीस और कुरान का आदेश .... लेकिन हमारे मुआशरे के मज़हबी रहनुमा खुलकर इस विषय मे मुस्लिमों को जाने क्यों शिक्षित नहीं कर रहे ?? और एक बैठक मे तलाक का तरीका इस्लाम मे प्रतिबंधित होने के बाद फिर कब कैसे और क्यों मुस्लिमों मे प्रचलित हो गया...?? हजरत उमर जब खलीफा थे तब मिस्र पहुंचने वाले कुछ मुस्लिमों ने वहाँ की स्त्रियों के सम्मुख विवाह के प्रस्ताव रखे, वे स्त्रियाँ मुस्लिमों से विवाह करने को इस शर्त पर तैयार हुईं कि पहले ये पुरुष अपनी पूर्व पत्नियों को प्रचलित अरबी तरीके "तीन तलाक" बोलकर तलाक दे दें, तभी वे उनसे विवाह करेंगी,उन पुरूषों ने तीन बार तलाक का उच्चारण अपनी पूर्व पत्नियों के लिए कर के मिस्र की उन स्त्रियों को विश्वास दिला दिया कि उन्होंने अपनी पूर्व पत्नियों को तलाक दे दिया है, और मिस्र की स्त्रियों ने उनसे विवाह कर लिया ...॥ इन स्त्रियों को नहीं मालूम था कि इस्लाम मे एक बैठक मे तलाक की इस विधी पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है .... पर जब उन स्त्रियों को पता चला कि उनके पतियों के उनकी पूर्व पत्नियों से तलाक नहीं हुआ तो वे अपने साथ हुए इस धोखे की शिकायत लेकर खलीफा हजरत उमर रज़ि. के पास गईंपूरा मामला जानकर हजरत उमर ने उन धोखेबाज पुरुषों पर बहुत क्रोध किया और एक बैठक मे दी गई तलाक को भी पूर्ण तलाक मानने का विधान फिर से इसलिए लागू कर दिया ताकि दोबारा से कोई पुरुष ऐसा धोखा किसी स्त्री के साथ न कर पाए...॥ स्पष्ट है एक बैठक मे तलाक को विधि सम्मत एक विशेष परिस्थिति मे माना गया ताकि पुरुष किसी प्रकार का धोखा किसी के साथ न कर पाएं... लेकिन एक बैठक मे तलाक का ये तरीका हमेशा और हर काल के लिए नहीं था ... ये बात कम से कम अब हर मुस्लिम को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए ...॥ आज हमारे मुआशरे मे तलाक का मजाक इसीलिए बना हुआ है क्योंकि किसी वक्त के झगड़े मे, गुस्से मे यदि पति के मुंह से तलाक के अल्फाज़ तीन बार निकल आएं तो उसका तलाक हो गया मान लिया जाता है , इसके बाद या तो न चाहते हुए मियां और बीवी को अपनी फजीहत से बचने को, जिन्दगी भर के लिए अलग हो जाना पड़ता है, ... या हलाला के नाम पर उन्हें अनजाने मे वो काम करना पड़ता है जिसे इस्लाम मे कब का हराम ठहराया जा चुका है ॥ हमारे रहनुमा कब मामला साफ करेंगे ????

दहेज़ प्रथा इस्लाम का हिस्सा नही ..@

हमारे देश मे महिलाओं की इतनी शोचनीय दशा होने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है दहेज प्रथा ,केवल इसी प्रथा के भय से ही हमारे देश मे लाखों लड़कियों को गर्भ मे ही मार डाला जाता है,
और जो गलती से पैदा हो जाती हैं , वो नारकीय जीवन जीने को बाध्य होती हैं, सोच कर देखा जाए तो इसी एक दहेज की कुप्रथा के कारण ही हमारे समाज की बेटियों को हर क्षेत्र मे दबाया जाता है, विडंबना देखिए कि वधू पक्ष ही वर को भरपूर दहेज भी दे, 
अपनी बेटी को अघोषित रूप से 24 घण्टे की सेविका बनाकर वर पक्ष को दे दे, फिर भी रौब और अकड़ वर पक्ष दिखाए, और कन्या पक्ष उसके आगे झुका रहे.. शादी से पहले मां बाप के कंधो का बोझ होने की हीनता लड़कियों के मन बैठा दी जाती है ... 
और शादी के बाद कम दहेज लाने को लेकर ससुराल मे मिलने वाली मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को परिवार की मान मर्यादा बनाए रखने के लिए लड़की पर ही हर ओर से दबाव डाला जाता है ...
ये स्थिति केवल गांव कस्बों की कम पढ़ी लिखी लड़कियों की ही नहीं बल्कि बड़े शहरो की उच्च शिक्षित और माडर्न लड़कियों की भी परिवार और समाज के दबाव मे यही नियति होती है लेकिन बात यदि थोड़ी शारीरिक मानसिक प्रताड़ना के बाद खत्म हो जाती तब भी गनीमत थी पर ऐसा होता नहीं अक्सर दहेज हत्या, बहू को जलाकर मार डालने के मामले ग्रामीण भारत मे सामने आते रहते है जबकि शहरी समाज दहेज प्रताड़ना के अनेक केस अदालतों मे लम्बित रहते हैं ..... 
ये दहेज का दानव तब तक हमारी बेटियों को खाता रहेगा, जब तक हम इस समाज से दहेज के लालच का समूल नाश न कर डालें .... 
वैसे तो इस्लाम मे दहेज प्रथा नहीं है पर भारतीय मुस्लिमों की बेहद बुरी आदत है कि वो इस्लाम की अच्छाईयों को अपनाकर दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बनने की बजाय खुद ही दूसरों की बुराईयों को अपना कर खुद बुरे बन जाते हैं ... 
अभी तक तो मुस्लिमों मे दहेज के स्वैच्छिक लेनदेन के अतिरिक्त दहेज की मांग के मामले नहीं पाए गए हैं, पर इस्लाम से दूर भागने के मुस्लिमों के लक्षण ऐसे ही रहे, और मजहब के रहनुमा अब भी सोए रहे तो वो वक्त दूर नहीं जब दहेज के लिए मुस्लिम लड़कियों को भी जलाया जाने लगेगा, और मुसलमान भी अपनी बेटियों को मां के गर्भ मे ही मारकर वापस उसी कुफ्र पर पहुंच जाएंगे जहाँ से उठाकर नबी स.उन्हें इन्सानियत की मेराज पर लाए थे

 बुखारी शरीफ के अध्याय 62 (विवाह) की हदीस 29 मे विस्तार से वर्णन है कि हजरत उरवा रज़ि. ने अम्मी आएशा रज़ि से सूरह निसा की आयत "अगर तुम्हें डर हो कि तुम उनके साथ न्याय नहीं कर सकोगे तो फिर उनसे विवाह मत करो..." के नाज़िल होने का कारण पूछा, तो अम्मी आएशा रज़ि. ने बताया कि ये आयत अनाथ लड़कियों का संरक्षण करने वाले उन पुरूषों के लिए नाजिल हुई जो उन अनाथ लड़कियों से प्रेम के कारण नहीं बल्कि उन की सुन्दरता का रस लेने और उनकी धन सम्पत्ति हड़पने की फिराक मे उनसे विवाह करना चाहते थे , 
स्पष्ट था कि वे उन लड़कियों की जायदाद हड़पने और लड़कियों की सुन्दरता से मन भर जाने के बाद उन लड़कियों को उनका अधिकार भी न देते और उन लड़कियों से बुरा व्यवहार भी करने लग जाते ... 

सो अल्लाह ने इस कपटपूर्ण भावना से किसी भी स्त्री से विवाह करने से पुरुष को रोका है, और उस स्त्री की बजाय किसी अन्य स्त्री से विवाह की आज्ञा दी है । यानि लड़कियो से दहेज मिलने के लालच , या फिर उनकी सुन्दरता के लोभ मे विवाह करने की अनुमति मुस्लिम को बिल्कुल नहीं है इसी तरह एक हदीस शरीफ़ है कि 

नबी करीम स. ने फरमाया कि जो कोई व्यक्ति किसी औरत से केवल उसकी ताकत और उच्चस्तर पाने के लिए विवाह करता है तो अल्लाह उस व्यक्ति के केवल अपमान मे ही बढ़ोत्तरी करता है । 
जो व्यक्ति केवल किसी स्त्री की जायदाद मिलने के लालच मे उससे विवाह करता है, तो अल्लाह उसे केवल निर्धनता मे परिणित करता है, और जो व्यक्ति किसी केवल स्त्री की सुन्दरता के कारण विवाह करता है तो अल्लाह केवल उसमें कुरूपता की ही बढ़ोत्तरी करता है लेकिन जो व्यक्ति अपनी आंखों को सुरक्षित रखने के लिए ( अपनी यौन शुचिता को बनाए रखने के लिए ) विवाह करता है, और अपनी पत्नी के साथ दयालुता और भलाई का व्यवहार करता है तो अल्लाह आशीर्वाद देकर उस वधू को वर के लिए शुभकारी बना देता है, और उस वर को वधू के लिए शुभकारी बना देता है ॥

"यहाँ भी स्पष्ट है कि दहेज या अन्य किसी लोभ मे किसी स्त्री से विवाह करने को इस्लाम मे एक अप्रिय और निषेध कर्म ठहराया गया है, और केवल भलाई और सदाचार पर कायम रहने के लिए विवाह किए जाने को प्रोत्साहित किया गया है, जिससे दहेज अपराध जैसी, भ्रूण हत्या जैसी कोई चीज समाज मे पनप ही न पाए .... 

तो इस्लाम तो हर क्षेत्र मे बहुत उत्तम शिक्षाएं देता है, आवश्यकता बस इन शिक्षाओं पर अमल करने और इन शिक्षाओं का प्रसार करने की है, और ये दोनों जिम्मेदारियां हमारी हैं ॥

क्या इस्लाम में मैहर देना औरत को खरीदने जेसा हे ....?

एक नास्तिक बहन को इस्लाम से ये शिकायत थी कि इस्लाम मे शादी के वक्त लड़की को देने के लिए एक रकम (मेहर) तय की जाती है, जो कि लड़की का अपमान है ॥ 

मैंने जो जवाब उन बहन को दिया था, वो मैं यहाँ पर पोस्ट कर रहा हूँ, ताकि अगर मेरे मित्रों मे से भी यदि किसी को मेहर के बारे मे कोई गलतफहमी हो तो वो दूर हो जाए, मैंने उन बहन से कहा : 

//....Bahan aapko shadi ke samay Islam me ladki ke liye Mehar tay karne pe aitraz hai . shayad aap bhi Islam ka adhura gyan rakhne walo ki tarah isy aurat ke jism ki keemat samajh rahi hain, lekin aisa nahi kyunki agar aadmi aurat se sukoon pata hai to aurat bhi admi se sukoon paati hai. 

agar aadmi jismani sukh ke liye veshya aurato pr paise kharch krta hai to auraten bhi jismani sukh paane ke liye veshya mardo yani Jigolo pe paise kharch krti hain, sharir ki maang chahe aurat ho ya mard dono me lagbhag ek si he hoti hai, to fir is hisab se to aadmi ke liye bhi mehar hona chahiye tha aurat ki taraf se agar ye jism ki keemat hota to mehar aurat ke jism ka mulya nahi balki Uske bhavishya ka insurance hai, 
kyunki aadmi kamata hai aurat admi ka ghar samhalne ki khatir nahi kamati isliye haq e mehar aurat ko uske shauhar ke hatho de diye jane ki wyavastha islam ne ki hai, Aur aap sochti hongi ki mehar talaq hone pe he di jaati hai aur ye mehar tay karna yani talaq ke liye rasta banana to aapka ye khyal bhi galat hai kyunki mehar talaq ke waqt diya jaane wala tohfa bhi nahi . 

Balki mehar to Aurat ka haq hai aur mahar ada ki he jaati hai chahe pati patni me kitni bhi mohabbat ho aur shadi tootne ka koi dar na ho, aadmi aurat ke is haq ko ada krne se tab tak nahi bach sakta jab tak aurat khud mehar maaf na kar de Aur behtar ye bataya gaya hai ki aadmi shadi ke baad jitni jaldi ho sake kisi bhi waqt aurat ki mehar aurat ko de de taki khuda na khwasta pati ka sath chhoot jaay to aurat apni aage ki zindgi guzarne ke liye un paiso se kuch intzam kr sake...

Saturday 1 August 2015

इस्लाम भ्रूण हत्या करने की इजाजत नही देता ..@

बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि एक नए अनुसंधान के मुताबिक भारत में पिछले 30 सालों में कम से कम 40 लाख बच्चियों की भ्रूण हत्या की गई है. अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'द लैन्सेट' में छपे इस शोध में दावा किया गया है कि ये अनुमान ज़्यादा से ज़्यादा 1 करोड़ 20 लाख भी हो सकता है. सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के साथ किए गए इस शोध में वर्ष 1991 से 2011 तक के जनगणना आंकड़ों को नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के साथ जोड़कर ये निष्कर्ष निकाले गए हैं. शोध में ये पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं. लेकिन अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई.शिक्षित और समृद्ध परिवारों में कन्या भ्रूण हत्या की दर निर्धन और अशिक्षित परिवारों से कहीं ज्यादा पाई गई । कन्या शिशु हत्या के इतिहास की ओर हम ध्यान करें तो पाते हैं कि पहले तो समाज ने स्त्री को हवस पूर्ति का सुलभ साधन बनाया, दहेज लेकर स्त्री और उसके अभिभावकों का आर्थिक शोषण किया और मां-बाप के लिए बेटी के ससुराल का पानी तक पीना पाप बनाकर लड़की को उसके माता पिता के सानिध्य के सुख से भी वंचित कर दिया ताकि ससुराल मे लड़की से मनचाहा फायदा उठाया जाए और लड़की का पक्ष लेने वाला और उसे अन्याय से बचाने वाला कोई न हो .... इस तरह स्वार्थी समाज ने दूसरों की बेटियों से तो खूब आनंद उठाया, पर जब उन्होंने अपनी बेटियों के साथ यही सब अन्याय होता देखा तो उनकी झूठी शान को बहुत ठेस पहुंची.... और अपनी तथाकथित शान और सम्मान बचाने के लिए उन दुष्ट लोगों ने अपनी नवजात बेटियों की हत्या करने का रास्ता निकाला बजाय इसके कि नग्नता, दहेज और विवाह से जुड़े गलत रिवाज़ो को खत्म करते । ये रिवाज़ वो लोग इसलिए मिटाना नहीं चाहते थे क्योंकि दूसरों की बेटियों के शरीर और सम्पत्ति से खेलने का लोभ तो वो संवरण कर ही नहीं सकते थे ॥ इस तरह भारत से लेकर प्राचीन अरब तक हर जगह अबोध, निर्दोष और निरीह कन्याओं को जन्म लेने ही मार डालने का दुर्दान्त खूनी रिवाज सदियों तक चलता रहा ... अब से 1400 वर्ष पूर्व अरब मे तो इस्लाम आया, और नबी स. ने निर्दोष बेटियों की हत्या की कड़ी भर्त्सना की और आप स. ने बेटी को जीवित रखने और उसका अच्छा पालन पोषण करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए अनेक भली भली शिक्षाएं दीं .... आपने फरमाया- "बेटी होने पर जो कोई उसे जिंदा नहीं दफनाएगा और उसे अपमानित नहीं करेगा और अपने बेटे को बेटी पर तरजीह नहीं देगा तो अल्लाह ऐसे शख्स को जन्नत में जगह देगा।" (इब्ने हंबल) इसी तरह हजऱत मुहम्मद सल्ल. ने ये भी फरमाया - "जो कोई दो बेटियों को मोहब्बत और इनसाफ के सुलूक के साथ पाले, यहां तक कि वे बेटियां बालिग हो जाएं और उस शख्स की मोहताज न रहें ( यानि आत्म निर्भर हो जाएं ) तो वह व्यक्ति मेरे साथ स्वर्ग में इस प्रकार रहेगा (आप सल्ल. ने अपनी दो अंगुलियों को एक साथ मिलाकर बताया कि ऐसे )।" और नबी करीम मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया- "जिस शख्स के तीन बेटियां या तीन बहनें हों या दो बेटियां या दो बहनें हों (यानी जितनी भी लड़कियों के पालन पोषण का जिम्मा उस पर हो) और वह उन सबकी अच्छी परवरिश और देखभाल करे और उनके मामले में (अन्याय करने से) अल्लाह से डरे तो उस शख्स के लिए जन्नत है !" (तिरमिजी) इस्लाम ने बेटी के लिए ऐसे नियम बनाए जिनसे बेटी का जीवित रहना, इज्जत और सुख से जीवन जीना सम्भव हो सका.... पर बड़े दुख की बात है कि भारत मे आज तक बेटी की हत्या जारी है.... मासूम बच्चियों की हत्या करने वाले ऐसे लोगों से मेरी इतनी ही गुज़ारिश है , कि जीवन बड़ा अनमोल उपहार है ईश्वर का.... अपनी औलाद से जीवन का वरदान छीनने की बजाय अगर आप समाज मे व्याप्त कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करें तो आपके साथ साथ समाज का भी बडा उपकार हो सकेगा .... इस्लाम ने बेटी के जीने के लिए जो उपाय दिए, वो मैं बता देता हूँ, हो सके तो इन उपायों को अपनाने का प्रयास कीजिएगा 1- इज्जत के डर से लोग अपनी बच्चियों की जान सबसे ज्यादा लेते हैं लेकिन अगर वो अपनी बेटी को शालीन कपड़े पहनाएं , बेटियों को मजबूत चरित्र वाली बनाएं तो बेटियों का शील भंग होने का कोई भय नहीं रह जाएगा 2- इस्लाम मे दहेज प्रथा नही है, अन्य समाजो की देखादेखी आज भले ही भारत और आस पड़ोस के कुछ अशिक्षित मुस्लिम दहेज का लेनदेन करने लगें हों, पर गैरमुस्लिमों की तरह दहेज की मांग मुस्लिम समाज मे अब भी नहीं है ... इस्लाम के अनुसार वधू पक्ष का वर को दहेज देना आवश्यक नही, पर वर का वधू को दहेज (मेहर) देना नितान्त आवश्यक है, मेहर से बेटी का भविष्य सुरक्षित होता है, और दहेज की अनिवार्यता न होने से वर पक्ष वाले वधू का आर्थिक शोषण करने की बात भी नहीं सोच सकते । 3- सम्भवत: इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसने पिता की सम्पत्ति मे बेटी को भी हिस्सेदार बनाया है .. क्योंकि ये सम्पत्ति दहेज की तरह हस्तांतरणीय नहीं होती जिसे हड़प के बहू को जला दिया जा सके बल्कि ये जायदाद जीवन भर लड़की का आर्थिक सम्बल बनी रहेगी और उसकी इच्छा के विरुद्ध इसका उपयोग कोई और न कर सकेगा... !!!

क्या इस्लाम मे स्त्री को कहीं मुफ़्ती खलीफा बादशाह ऐसा कुछ बनाने की मनाही हे ...?

गैर मुस्लिमों और अशिक्षित मुस्लिमों के बीच भी ये भ्रम फैला हुआ है कि इस्लाम स्त्रियों को केवल चूल्हे चौके, और पति और बच्चों तक सीमित रखने का पक्षधर है और घर की चारदीवारी के बाहर स्त्री की कल्पना इस्लाम मे नहीं है .... इसी आशंका के साथ हमारे एक मित्र ने प्रश्न किया था कि क्या इस्लाम मे स्त्री को कहीं मुफ़्ती खलीफा बादशाह ऐसा कुछ बनाने को लिखा हो तो उस पर प्रकाश डालिए.... ..... मै मानता हूँ, कि वास्तव मे इस्लामी ज्ञान पर पुरुषवादी मानसिकता ने अनाधिकृत रूप से अतिक्रमण कर रखा है, इसलिए ऐसे भ्रम पैदा होते हैं कि इस्लाम स्त्रियों को बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं देता.... खैर ये भ्रम निरा भ्रम ही है, और इस्लाम ने स्त्री को मां, बहन, बेटी, नर्स, गुरु और धर्म गुरु, बिजनेस वुमेन और पत्नी की अनेक भूमिकाओं मे पूरा सम्मान और असंख्य अधिकार सौंपे हैं, मां आएशा सिद्दीक़ा रज़ि. इस्लाम की बहुत बड़ी और बहुत सम्मानित धर्म गुरु थीं, जिन्होंने पुरूषों को भी उतनी ही कुशलता से धार्मिक ज्ञान दिया जितनी कुशलता से स्त्रियों को, नबी सल्ल. के ही समय मे जब काफिरों के विरुद्ध मुस्लिमों को युद्ध करना पड़ता, तो मुस्लिम स्त्रियाँ, पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर जंग के मैदान मे जाती थीं, वहां वे व्यवस्थापक और नर्सिग का काम करती थीं .... नबी सल्ल. के ही समय से लेकर भारत के मुगल शासन तक देख लीजिए, शासन प्रशासन और राजनीति मे महिलाएं खासा दखल भी रखती थीं और राजनीति को प्रभावित भी करती थीं, भारत की पहली महिला शासक "रज़िया सुल्तान" ही मुस्लिम थी, इसके पीछे भी इस्लाम की ही प्रेरणा थी ..... रजिया का विरोध करने वाले धर्मगुरूओ ने उसके महिला हो कर शासन करने पर सवाल नहीं उठाया बल्कि ये ऐतराज जताया था कि रजिया मर्दाना परिधान पहनकर और घोड़े पर चढ़ाने की सेवा मे एक पर पुरुष याकूत को नियुक्त कर के घोड़ा चढ़ते समय याकूत का हाथ पकड़कर गैर इस्लामी कार्य क्यों कर रही है .... ये बहाने इसलिए बनाए गए क्योंकि इस्लाम किसी स्त्री को शासक बनाने की मनाही नहीं करता, इसी कारण इस्लाम की दुहाई देकर रजिया को कभी अपदस्थ नहीं किया जा सका इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे व्यवसाय हैं जो इस्लाम केवल स्त्रियों से ही अपनाने की अपेक्षा रखता है, जैसे स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर, महिला कालेज की शिक्षिका, दाई, मौत के बाद स्त्री को स्नान कराने वाली आदि नबी सल्ल. की पवित्र पत्नी, मां हजरत खदीज़ा रज़ि. मक्का की एक बड़ी व्यवसायी थीं , मुस्लिम औरतें अपना घर चलाने के लिए घर से बाहर जाकर भी व्यवसाय किया करती थीं तो इस्लाम की ही अनुमति से ... तो भाई इस्लाम को जरा गलतफहमियों का चश्मा हटाकर, समझने की दृष्टि से देखिए, काफी कुछ देखने को मिलेगा

इस्लाम औरत को एक से ज्यादा पति रखने की इजाजत क्यों नही देता ...?

Kuch logo ko Islam ki is baat pe aitraz hai ki Islam aadmi ko to ek waqt me ek se zyada aurato se shadi ki ijazat deta hai magar aurat ko sirf ek he pati ke sath guzara karne pe majboor karta hai Mai un aitraz krne walo se kahna chahta hu ki Islam ka koi niyam na- insafi wala nahi bas kam buddhi wale log in niyamo ka karan nhi samajh pate aur in niyamo ki acchai nhi dekh paate Aap ek nyaysangat niyam aadmi aur aurat dono ke liye samaan rup se rakh kr sochiye ki, Koi aurat ek samay me jitne purusho ke prati kartawya nibha sakti hai (sharir se santusht karna, purush ko uska wanshaj dena, purush ke ghar ki dekhbhal krna ) kewal utno se shadi kare yahi niyam purusho ke liye bhi ho ki ek samay me purush jitni aurato ke prati apne kartawya nibha sake (sharir sukh dena, patni ka bharan poshan karna aur santaan ki zimmedari uthana ) utni aurto se vivah kar le us se zyada nhi ek se zyada maan lijiye 5 patiyo ki eklauti patni jab kisi ek pati se garbhvati hogi to baaki ke chaar patiyo ko wo kaise sharir sukh degi ? aur uske pati bina kisi faayde ke 9-10 maheene ke sharir sukh se wanchit rahna kyu sweekarnge? is sthiti me to aisa bhi ho sakta hai ki har pati 4 saal me bas ek baar patni se sambandh bana paay aaj to dna test hai pichhle zamano ki socho us waqt ye faisla kaise hota ki eklauti bivi se jo baccha paida hua wo 5 admiyo me se kiska hai aur kaun usko paalne ka kharch uthayega ? is tarah aadmi to bacche ko dusre ka bata ke palla jhaad leta aur aurat he jhak maar ke apne saare patiyo ki karni bharti to ek samay me aurat ek se zyada patiyo ke prati kartawya pury kar he nahi sakti, jabki aadmi ek wakt me ek se zyada aurato ke prati kartawya pury kar sakta hai isliye Islam aurat ko ek samay me ek he purush se shadi ki agya deta hai, Aur Islam kisi aurat ko anek shadiyan karne se bhi nahi rokta bas ek baat sunishchit ho ki kisi naye purush se shadi krne ke liye stree pahle pati ko talaq de de aur talaq de de kar anek shadiyan kar dale koi baat nhi नोट :- यहां मैंने केवल विवाह संस्था मे पति पत्नी के कर्तव्य और अधिकारों की चर्चा की है , न कि स्त्री और पुरुष के सारे जीवन के उद्देश्यों या उपयोगिता की, अत: ये कुतर्क न ही करें कि इस्लाम स्त्री को केवल भोग की वस्तु और बच्चे पैदा करने की मशीन मानता है ॥ इस्लाम ने स्त्री को मां, बहन, बेटी, नर्स, गुरु और धर्म गुरु, बिजनेस वुमेन और पत्नी की अनेक भूमिकाओं मे पूरा सम्मान और असंख्य अधिकार सौंपे हैं, उनमें से केवल एक भूमिका "पत्नी" की यहाँ चर्चा की गई है, और स्पष्ट है इस भूमिका की चर्चा करते समय शरीर सुख और वंश वृद्धि का जिक्र होगा ही क्योंकि ये बातें विवाह के मुख्य उद्देश्यों मे सम्मिलित हैं, और न सिर्फ स्त्री बल्कि पुरुष भी स्त्री को शरीर सुख और संतान देता है, अत: शब्दजाल न फैलाइए, इस्लाम के कानूनों मे कोई बेचारा या बेचारी नहीं होता । एक बात और, हर समाज के कुछ कानून हैं, व्यक्ति को इन्हीं कानूनो के दायरे मे रहकर व्यवहार करना होता है,समाज बहुपत्नी को स्वीकार लेता है इस कारण पत्नियां भी अपने पति के दूसरे विवाह को सहमति दे देती हैं, पर बहुपति को कोई समाज स्वीकृति नहीं देता (इसकी मनाही के कारण भी तर्क संगत हैं ) इस कारण पति भी अपने रहते अपना सौता नहीं स्वीकार सकते —

इस्लाम में औरत को मासिक धर्म (periods) में आजादी.?

अम्मी आइशा रज़ि. की ये दोनों और ऐसी ही दूसरी रिवायतें लेकर कुछ गैर मुस्लिम इस्लाम का मज़ाक उड़ाया करते हैं, नबी सल्ल. का अपमान किया करते हैं, क्योंकि उन अज्ञानियों को इन बातों मे अश्लीलता नजर आती है, और वे लोग इन बातों को हदीस की किताब मे लिखे जाने का सही मन्तव्य नहीं समझ पाते ..
इसलिए ये बातें इस्लाम का अपमान करने के तौर पर मुस्लिमों के सामने लाते हैं ....! 
अस्ल मे अम्मा आइशा रज़ि. तमाम मुस्लिम स्त्रियों की गुरु थीं और जीवन के सभी पहलुओं पर स्त्रियों को शिक्षा देने के साथ ही साथ उन्हे सेक्सुअल हेल्थ और पर्सनल हाइजीन की शिक्षा भी मां आइशा ने दी है, जैसे हर मां यथा सम्भव अपनी बेटी को देती है जितना कि थोड़ा बहुत वो मां खुद जानती है ... 
जो लोग इस विषय पर इस्लाम का मजाक उड़ाते हैं स्वयं उनकी मां भी अपने बच्चों को इसी प्रकार की शिक्षा देती है । अब क्योंकि मां आइशा रज़ि. को नबी सल्ल. के जरिए हर क्षेत्र मे शुद्ध ईश्वरीय ज्ञान मिला था इसलिए वो दुनिया की किसी भी मां से ज्यादा गुन की एकदम ठीक व लाभदायक बातें अपने बच्चों को सिखा सकती थीं, जो उन्होंने सिखाई हैं .... 

मां आइशा रज़ि. ने बताया कि यदि किसी गरीब स्त्री के पास एक ही अंतर्वस्त्र हो, तो हर बार मासिक धर्म के बाद वह उसे भली प्रकार धोकर साफ कर लिया करे और गन्दा कपड़ा ही न पहने रहा करे, क्योंकि ऐसे गन्दे कपड़े से उसे संक्रमण होने का डर है ... इस रिवायत मे खून के धब्बों को थूक से साफ करने की शिक्षा दी गई है , जो कि खून का जिद्दी धब्बा हटाने का बेस्ट आइडिया है ... 
थूक के एंजाइम खून के धब्बे के प्रोटीन को तोड़ देते हैं, जिससे धब्बा आराम से छूट जाता है , फिर कपड़ा धोने के बाद दाग का नामोनिशान भी नही दिखता.... अब बताईए भला, कोई इस्लाम की सफाई सुथराई की शिक्षा का भी मजाक उड़ाए तो हम उसे क्या समझें ?? और जैसा कि कुरान 2:222 मे है कि मासिक धर्म के समय स्त्री के निकट न जाओ, इसका अर्थ है कि उनसे शारीरिक संसर्ग न करो.... 

हिन्दू समेत अनेक समुदायों मे मासिक धर्म के समय स्त्री को एकदम अछूत बना दिया जाता है, लेकिन इस्लाम केवल हाइजीन के कारण से इस समय सम्भोग की मनाही करता है इसके अतिरिक्त मासिक धर्म के समय भी स्त्री को पूरे प्रेम, सम्मान और अधिकारों की अधिकारी ठहराता है ऊपर बताई हुई दूसरी रिवायत से मिलती जुलती अन्य कई हदीस भी हैं कि मां आइशा जब मासिक धर्म मे होती थीं तो भी जिस टब से पानी निकाल कर मां आइशा नहाती थीं, उसी टब से पानी निकाल कर नबी सल्ल. भी नहाते, मां आइशा नबी सल्ल. के सर की मालिश करती थीं, और प्यारे नबी सल्ल. मां आइशा रज़ि. से प्रेम प्रदर्शन भी करते उन्हें छूते भी, बस केवल मासिक धर्म के समय शारीरिक सम्बन्ध न बनाते .... कहना न होगा कि 
अज्ञानी लोग इन रिवायतों को भी इस्लाम का अपमान करने के लिए प्रस्तुत किया करते हैं लेकिन वास्तव मे ये रिवायतें इस्लाम के अपमान की नहीं बल्कि इस्लाम द्वारा स्त्रियों को दिए सम्मान की हैं, कि इस्लाम के अनुसार मासिक धर्म के समय भी स्त्री घर के किसी हिस्से या किसी सदस्य के लिए अछूत नहीं हो जाती और इस रिवायत कि मां आइशा जिस समय मासिक धर्म मे होती थीं, और प्यारे नबी सल्ल. उनकी गोद मे सर रखे रखे कुरान का पाठ करते थे ( यानि कुछ आयतें मुंह जुबानी पढ़ लेते थे , न कि किताब हाथ मे लेते थे.... 
और कुरान का पाठ करने वाले प्यारे नबी सल्ल. पवित्रता की ही हालत मे होते थे क्योंकि किसी का शरीर छू लेने से अपवित्र हो जाने का अमानवीय नियम इस्लाम मे नहीं है ..) से ये भी सिद्ध कर दिया गया कि मासिक धर्म की स्थिति मे भी स्त्री पवित्र कुरान का पाठ सुन सकती है ॥ 

देखिए इस्लाम का कानून जो हाईज़ा(period) स्त्री को भी पवित्र कुरान सुनने से नही रोकता और स्त्री को पूरा सम्मान देता है, वहीं दूसरी ओर ऐसे भी धर्म सूत्र रहे हैं जो अच्छी भली साफ सुथरी स्त्री और शूद्र पुरुष के कान मे वेद का एक भी मन्त्र पड़ जाने पर उन स्त्री पुरूष को नरकगामी ठहरा देते और उनके कानों मे पिघलता सीसा डाल देने का आदेश देते थे

पवित्र कुरान में औरतो की तुलना खेती से क्यों ....?

बहुत से भाई पवित्र कुरान मे एक स्थान [2:223] पर औरत को मर्द की खेती कहे जाने पर आपत्ति उठाते हैं.... 
हालांकि मुझे इन भाईयों की आपत्ति का कोई संतोषजनक कारण समझ नही आता ... क्योंकि खेती शब्द मे किसी प्रकार से किसी का अपमान होता हो, ऐसा कहीं से प्रतीत नहीं होता ....!! 
ये बात आपत्ति करने की नहीं बल्कि आश्चर्य करने की है कि चौदह सौ वर्ष पूर्व जब मनुष्य जीव प्रजनन और पादप जनन (खेती ) मे कोई समानता नहीं देख पाया था, तब कुरान मे अल्लाह ने ये बता दिया कि मानव जन्म की प्रक्रिया ठीक धरती से पौधा उगने के समान है .... 
आज विज्ञान भी इसी बात को मानता है कि जिस प्रकार मां की कोख से बच्चा पोषण खींच कर बनता और जन्मता है ठीक उसी प्रकार और उन्हीं पौष्टिक तत्वों को जमीन की कोख से खींच कर एक बीज से पौधा भी बनता व जन्म लेता है ॥ 
और इसीलिए मां बनने की इस अद्भुत क्षमता के कारण कुरान मे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से औरत को खेती भी कहा गया है, और मां बनने की इसी क्षमता के कारण इस्लाम मे औरत का सबसे अधिक सम्मान भी किया गया है .... सो भाईयों जिस बात को किसी अज्ञात कारण से आप स्त्री का अपमान बता रहे हो, वो तो स्त्री के लिए बहुत सम्मान की बात है और खेती शब्द मे कौन सा अपमान है, जरा आप ये तो सोचकर बताईए ?? 
खेती को तो दुनिया के हर हिस्से मे एक सम्माननीय कार्य माना जाता है कहीं भी खेती के कार्य को बुरी नजर से नहीं देखा जाता .... 
हमारे देश ही मे धरती को देवी के ऊंचे पद पर बैठाने का सम्मान क्या केवल इसीलिए नहीं दिया गया कि वो हमारे लिए अन्न उपजाती है ...?? 
बताईए आपके ही धर्म ने खेती को इतना सम्मान दिया की इस कारण धरती की और अन्न की पूजा भी होने लगी और आप को खेती शब्द मे अपमान नजर आता है ...?? 

तो भाई उसी खेती का दिया खाकर आप जीते हैं और उसी खेती को अपमान की बात समझते हैं, सोचिए तो क्यों ...???

क्या इस्लाम ने स्त्री को कुत्ते और गधे जैसा बताकर स्त्रियों का अपमान किया ह....?

अबु दाऊद शरीफ़ मे एक हदीस है कि यदि कोई कुत्ता, गधा, सुअर, एक यहूदी, जादूगर या कोई स्त्री किसी बिना किसी खुले स्थान पर नमाज पढ़ते व्यक्ति के करीब से सामने से गुजर जाएं तो नमाज खराब हो जाती है, ( मुस्लिम शरीफ़ के अनुसार नमाज़ मे खलल पड़ जाता है ।) इस हदीस को आधार बनाकर कुछ लोग ये आरोप लगा रहे हैं कि इस्लाम ने स्त्री को कुत्ते और गधे जैसा बताकर स्त्रियों का अपमान किया है ॥ इस आरोप का सबसे अच्छा जवाब बुखारी शरीफ़ की किताब-9, हदीस-493 मे है कि अम्मी आइशा रज़ि. ने जब नबी सल्ल. के समक्ष इस बात पर एतराज़ जताया कि "आप सल्ल. हमारी (स्त्रियों की) तुलना कुत्ते और गधे से कर रहे हैं ??" तो (इस घटना के उपरांत) अम्मी आइशा रज़ी. ने देखा कि नबी सल्ल. अम्मी आइशा के अपने सामने लेटी होने के बावजूद नमाज पढ़ रहे थे ...." ऐसे नमाज पढ़कर नबी सल्ल. ने ये जाहिर कर दिया कि आप सल्ल. ने स्त्रियों को कुत्ते या गधे जैसा नहीं माना था, और यदि नमाजी के आगे जाने की मनाही को किसी भली स्त्री ने अपना अपमान समझा हो, तो प्यारे नबी सल्ल. ने स्त्रियों को अपमानित नही किया है । वास्तव मे इस हदीस का मंतव्य ये है कि नमाज को पूरी एकाग्रता के साथ पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन यदि कुत्ते, गधे या सूअर जैसा कोई जानवर जो किसी व्यक्ति को अपने पास पाकर आक्रामक हो सकता है , या शत्रु पक्ष का कोई व्यक्ति किसी नमाज पढ़ते हुए व्यक्ति के सामने आ जाए तो निस्संदेह नमाज़ी का ध्यान ये सोचकर नमाज़ से हट जाएगा कि कहीं वो जानवर या शत्रु , नमाज़ी को कोई नुकसान न पहुंचा दें, ....इसके विपरीत यदि कोई स्त्री नमाज पढ़ते व्यक्ति के सामने आ जाएगी तो उस स्त्री का रूप सौन्दर्य या शोख परिधान देखकर नमाज़ी का ध्यान नमाज़ से भटक सकता है , और नमाज मे खलल और खराबी आ सकती है. जैसा कि इस विषय की हदीस की व्याख्या करते हुए एक बड़े इस्लामी विद्वान इमाम नानवी ने लिखा है कि:- "यहाँ नमाज मे खलल पड़ने का अर्थ, व्यक्ति का ध्यान इन चीजों की तरफ भटक जाने से नमाज़ से एकाग्रता हट जाना है ." (शरह अल- नानवी 2/266). अब सोच के देखिए कि क्या इस हदीस मे किसी तरह के जानवर से स्त्री की तुलना की जा रही है ...?? .. हरगिज़ नहीं, क्योंकि जानवरों को देखकर नमाज़ी का ध्यान एक अलग कारण से भटकेगा और इसके विपरीत स्त्री को सामने देखकर बिल्कुल ही अलग कारण से .... न ही इस हदीस मे किसी भी तरह किसी स्त्री का अपमान किया गया है , बल्कि यहां तो स्त्री के सौन्दर्य के कारण नमाज़ी का ध्यान भटकने की आशंका व्यक्त की गई है, ये तो स्त्री जाति के सौन्दर्य की प्रशंसा ही है, उसका अपमान नहीं ॥ —

क्या इस्लाम मुस्लिमों को युद्ध मे जीती गई स्त्रियों के "बलात्कार" करने की खुली छूट देता है..।??

बहुत से लोगों को मैंने पवित्र कुरान की सूरह निसा की इस आयत को लेकर कि "मुस्लिमों के लिए तमाम विवाहित स्त्रियाँ हराम हैं , सिवाय (युद्ध मे) कब्जे मे आई हुई विवाहित स्त्रियों के"..... 

इस्लाम पर ये आरोप लगाते देखा है कि इस्लाम मुस्लिमों को युद्ध मे जीती गई स्त्रियों के "बलात्कार" करने की खुली छूट देता है .... 

हालांकि ये सत्य नही है, बलात्कार वो होता है जब कोई व्यक्ति विवाह से इतर किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उससे जबरन यौन सम्बन्ध बनाता है .... 
इस्लाम के नियमों का ऐसी किसी स्थिति को अनुमति देने से दूर दूर तक का वास्ता नही है...!! 

वास्तव मे कुरान मजीद मे सूरह निसा (सूरह नम्बर-4) की आयत 22,23 और 24 मे उन स्त्रियों का ज़िक्र है जिनसे एक मुस्लिम पुरुष का विवाह करना हराम यानि सख्ती से निषेध है, एवं इनके अतिरिक्त बाकी स्त्रियों से विवाह करना वैध है ॥ 
4:24 मे लिखा है कि तमाम विवाहित स्त्रियों से विवाह करना हराम है, सिवाय विवाहित गुलाम स्त्रियों के, यानि विवाहित दासी से विवाह करना जायज़ है इस्लाम मे ..... परंतु ऐसा क्यों ?? 

जबकि इस्लाम मे तमाम विवाहिता स्त्रियाँ शादी के लिए हराम हैं, तो विवाहित दासियां हलाल क्यो ?? ऊपरी तौर पर देखने से ये बात अन्याय भरी लगती है, और ये बात गले से नही उतरती कि जब एक विवाहिता स्त्री का दोबारा तभी विवाह हो सकता है जबकि उसका पहला पति उसको तलाक दे चुका हो, अथवा मर चुका हो, तो फिर गुलाम स्त्री के मामले मे अलग कानून किसलिए ?? 

.... लेकिन जब हम मामले का थोड़ी गहराई से अध्ययन करते हैं तो मामला साफ हो जाता है कि ये केस बाकी केसेज़ से अलग नहीं बस हमारी समझ का फेर है जो लड़कियां गुलाम हुआ करती थीं, इस्लाम के विधान आने से पूर्व के लोग उनसे जिस्मानी ताल्लुक तो बनाते थे पर उनसे विवाह नही करते थे, विवाहिता दासी सिर्फ वो स्त्रियाँ होती थीं जिन्हें युद्ध मे उनकी सेना की पराजय के बाद गुलाम बना कर अरब के गैर मुस्लिम उन स्त्रियों की इच्छा अनिच्छा की चिंता के बगैर उनसे हर प्रकार का काम लेने के साथ ही साथ उनके शारीरिक शोषण भी किया करते थे .... 

इन्हीं लोगों से जब मुस्लिमों के युद्ध हुए और उन युद्धों मे मुस्लिमों की जीत हुई तो युद्ध मे शामिल हुई विवाहित यहूदी और मुश्रिक (बहुदेववादी) स्त्रियाँ मुस्लिमों की गिरफ्त मे आ गईं यानि इन्हीं मुश्रिक और यहूदी स्त्रियों के साथ मुस्लिमों का विवाह करना वैध बताया गया है जबकि वो स्त्रियाँ मुस्लिम पुरूषों से विवाह करने के लिए स्वयं इच्छुक हों, जैसा कि आप जानते हैं कि मुस्लिम विवाह मे वर और वधू, दोनों की स्वतंत्र अनुमति ली जानी आवश्यक है , लेकिन विवाहिता गुलाम स्त्री से विवाह करने के लिए एक शर्त और भी है ..... 
सर्वशक्तिमान अल्लाह पवित्र कुरान मे आदेश देता है कि एक मुस्लिम पुरुष किसी मुश्रिक स्त्री से विवाह नही कर सकता, जब तक कि वो स्त्री ईमान न ले आए, एक मुश्रिक स्त्री से विवाह करने से बेहतर है कि एक ईमान वाली, अर्थात् मुस्लिम दासी से विवाह कर लिया जाए ॥ [अल-कुरआन, 2:221] 

और यही हुक्म पवित्र कुरान 4:25 में भी दिया गया है कि ईमान वाली, यानि मुस्लिम दासियों से ही विवाह किया जाए, अर्थात् 4:24 मे विवाहिता दासी के एक मुस्लिम से पुनर्विवाह के लिए हलाल (वैध) होने की अनुमति तभी के लिए है जब वो अपनी खुशी से मुसलमान हो गई हो और उन औरतों के मुसलमान होने के बाद उनके मुश्रिक और यहूदी पतियों उनका से विवाह खुद ही टूट जाएगा . . . . 

यानि विवाहिता दासी का केस ऐसा ही है जैसे किसी तलाकशुदा अथवा विधवा स्त्री से विवाह किया जाता है !!

इस्लाम में पुरुष को बहुविवाह की अनुमति क्यों ... ?

इस्लाम मे पुरूष को अनेक विवाहो की अनुमति की बात सुनकर लोग इसे पुरूषों की मौज मस्ती से ही जोड़कर देखते हैं ... पर वास्तव मे ऐसा नही है ..॥ 

रसूल करीम सल्ललहो अलेह व सल्लम के ज़माने में जब युद्ध में अनेक मुसलमान मारे गये और उनकी विधवा औरतों ,और उनकी लड़कियों के आगे जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया, और क्योंकि युद्ध मे बड़ी संख्या मे मारे जाने के कारण मुस्लिम पुरूषों की संख्या मुस्लिम स्त्रियों के मुकाबले काफी कम हो गई थी , 
इसलिए तब उन बेसहारा विधवाओं और लड़कियों को सहारा देने के लिए यह व्यवस्था दी गयी थी कि एक मुस्लिम पुरुष एक से अधिक उतनी स्त्रियों से विवाह कर ले जितनो का वो भरण पोषण कर सके , ये विवाह भी तब हो सकता है जब पुरुष की पहली पत्नी को इस विवाह से कोई आपत्ति या तकलीफ न हो ॥ 
अत: स्पष्ट है कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की व्यवस्था मौज मस्ती के लिए नहीं, बल्कि गरीब, विधवा, तलाकशुदा, अनाथ बेसहारा औरतों को सहारा देने के लिए दी गई है . 
जिन लोगों को ये लगता है कि अनेक स्त्रियों से विवाह करने की अनुमति मुस्लिम पुरूषों की मौज मस्ती के लिए है, वे ध्यान दें कि मौज मस्ती के लिए पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह करने की स्थिति तो तब बनेगी, जब पुरुष अन्य स्त्रियों के सम्पर्क मे आए, उनके रूप सौन्दर्य पर मोहित हो जाए, 
लेकिन क्योंकि इस्लाम मे गैर स्त्री पुरूषों के आपस मे अनावश्यक ढंग से घुलने मिलने, और अकारण गैर स्त्री पुरुष की ओर नजर उठाकर देखने की भी मनाही है इसलिए एक प्रैक्टिसिन्ग मुस्लिम व्यभिचार या दूसरी शादी के बारे मे सोच भी नहीं सकता, बल्कि उसके लिए तो दुनिया की सबसे सुंदर औरत उसकी अपनी पत्नी ही होगी तो जिस समाज मे स्त्री पुरुष का घुलना मिलना आम हो वहीं मौज मस्ती के लिए लोग पहली पत्नी को नाराज कर के दूसरी शादी कर लेते हैं, न कि इस्लामी व्यवस्था मे । 
भले ही भारत मे मुस्लिम पुरूषों के लिए एक से अधिक स्त्रियों से विवाह की कानूनन अनुमति हो, पर मैंने अपने जीवन मे आज तक किसी प्रैक्टिसिन्ग मुस्लिम को एक से अधिक विवाह किए हुए नहीं देखा .... 
हां वे मुस्लिम जो इस्लाम से दूर रहकर बेरोक टोक पराई स्त्रियों से घुलते मिलते थे उन्हीं मे एक समय मे एक से अधिक विवाह के मामले देखने मे आए, ठीक इसी कारण से कि लोग पराई स्त्रियों मे घुलते मिलते थे हिन्दू समाज के पुरूषों द्वारा भी एक समय मे एक से अधिक शादियों के मामले मैंने देखे... 
जबकि भारतीय हिंदू विधि मे पुरूष का एक समय मे एक से अधिक विवाह करना कानूनन अपराध की श्रेणी मे रखा गया है खैर इस्लाम मे पुरुष द्वारा एक से विवाह की व्यवस्था देने का कारण था कि तलाकशुदा और विधवा स्त्रियों को जीवन यापन का सहारा मिल जाए , फिर चाहे उनसे कुंवारे पुरुष शादी कर लें या शादीशुदा पुरुष .... 
और इस आदर्श को मुस्लिम युवक अब भी निभाते हैं, क्योंकि अब इतिहास की तरह मुस्लिम पुरूषों की संख्या की कोई कमी नहीं है अत: आज के समय मे अपने आसपास मैने बहुत से कुंवारे मुस्लिम पुरूषों को तलाकशुदा और विधवा स्त्रियों से विवाह करते और उस विवाह को निभाते देखा है ॥

इस्लामिक शरीयत में औरत के बलत्कार होने पर 4 गवाह पेश करना क्या सही हे ....?

बहुत वक्त से मैं इण्टरनेट पर शरिया कानून के खिलाफ लोगों को बेसिर पैर की अफवाहें उड़ाते देखता आ रहा हूँ कि इस्लामी कानून मे अगर किसी औरत के साथ बलात्कार हो जाए, तो दोषी को सजा दिलवाने के लिए उस पीड़िता को अपने पर हुए बलात्कार के चार चश्मदीद गवाह अदालत मे पेश करने पड़ेंगे, तभी मुजरिम को सजा होगी, और यदि पीड़िता चार गवाह न ला सकी उस औरत को ही शरिया कानून व्यभिचारिणी मानकर सजा देगा ....... क्या मूर्ख आक्षेप है ....??? यदि ऐसा कानून हो, तो फिर तो मुस्लिम मुल्क मे कभी किसी बलात्कारी को सजा ही न हो ..... क्योंकि बलात्कार कभी चार आदमियों, और वो भी विपक्षी आदमियों के सामने कोई नही करता है ! फिर तो कोई औरत कभी अपने ऊपर हुए ज़ुल्म के बारे मे बोलने की हिम्मत ही न करेगी, और सारे बलात्कारी मुस्लिम देशों मे खुले घूमते रहेंगे .... लेकिन ऐसा नही है, सब जानते हैं, कि मुस्लिम देशों मे बलात्कार करने वालों को बराबर सजा मिलती है, और वो भी बहुत सख्त सजा ॥ अस्ल मे चार गवाह वाला मसला बलात्कार नही बल्कि व्यभिचार (आपसी सहमति से अवैध शारीरिक सम्बन्ध बनाना ) का है , जैसा कि आप जानते हैं, कि इस्लाम मे व्यभिचार करने वालों के लिए सख्त सजा का प्रावधान है, इस कानून का दुरुपयोग गलत किस्म के लोग अपनी ज़ाती दुश्मनी निकालने के लिए कर सकते थे, और किसी भी भले घर के स्त्री और पुरुष पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाकर किसी को भी ज़लील करवा सकते थे, और किसी भी खानदान की इज्जत उछाल सकते थे ...... इसी खतरे को पूरी तरह से मिटाने के लिए पवित्र कुरान की ये आयत अवतरित हुई "वो लोग जो पाक दामन और शरीफ औरतों पर इल्ज़ाम लगाएं, फिर चार गवाह न ला सकें ,तो फिर इन लोगों को ही अस्सी कोड़े मारो और कभी इनकी गवाही न मानो" [पवित्र कुरान, 24:4] तो जाहिर है चार गवाह उस आदमी को लाने पड़ेंगे जो किसी शरीफ स्त्री पर व्यभिचार का आरोप लगाएगा, फिर ये सुनिश्चित किया जाएगा कि वो गवाह सच्चे हैं या नहीं, उन चारों से अलग अलग बारीकी से सवाल जवाब किए जाएंगे ...और यदि उनके बयान अलग अलग पाए गए, और झूठ पकड़ा गया, तो फिर आरोप लगाने वाले व्यक्ति को उसके इस षणयन्त्र की सजा दी जाएगी .... इस सख्त कानून के कारण कोई भी किसी पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाने से डरता है ॥ और रहा बलात्कार की शिकार हुई औरत का सवाल, तो बलात्कार के केस मे पीड़िता को कोर्ट मे अपने पक्ष मे एक भी गवाह पेश करने की कोई जरूरत नहीं है ... बल्कि इस मुकदमे मे पीड़िता के बयान , दोषी आदमी के बयान , और इन दोनों के चाल चलन के बारे मे इन को जानने वाले सच्चे लोगो के बयान लेती थी, और पूरी होशियारी से इन्साफ दिलाती थी आज के दौर मे बलात्कार को साबित करने के लिए DNA टेस्ट काफी है .... बलात्कार के केस मे इस्लामी कोर्ट ने न कभी पहले चार गवाह मांगे, न कभी मांगेगी