Friday 26 June 2020

घर वापसी कब और कैसे ???


कुछ बुद्धिजीवी प्रकृति पूजा और मूर्ति पूजा को हड़प्पा सभ्यता से जोड़कर देखते है जो कि इतिहासकारो की नजर में अमूमन 5000 वर्ष पुरानी है और इस आधार पर अपने आपको सही साबित करने की कोशिश करते है, यैसे लोगों से मै कहना चाहूगा कि मूर्ति पूजा तो हड़प्पा से भी सैकड़ो वर्ष पुरानी है ,लेकिन इस दलील के आधार पर इसे सही समझने की कोशिश करना और सच जानने की कोशिश न करना सिवाय हठ के और कुछ नहीं ,
 ब्रह्मांड के निर्माता ने प्रथम मनुष्य आदम अलैहिस्सलाम को पैदा करने के बाद उनकी पीठ से महा-प्रलय के दिन तक जन्म लेने वाली सन्तति निकाली और चींटियों के समान उनके सामने फैला कर उन्हें स्वयं उनके ऊपर गवाह बनाया कि क्या मैं तुम्हारा रब नहीं  हूं। बोले:  क्यों नहीं, हम गवाह हैं। तब अल्लाह ने कहा कि तुम महा-प्रलय के दिन कहीं यह न कहने लगो कि “हमें तो इसकी सूचना ही न थी।” या यह कहने लगो कि बहुदेववाद तो हमारे पूर्वजों ने किया था, हमने तो मात्र उनका अनुसरण किया था क्या तू उनके पापों की सज़ा हमें दे रहा है ? ( क़ुरआन 7:172)

मानो आदम की संतान ने शरीर में ढलने से पूर्व यह वादा किया था कि मरते दम तक तेरे घर से जुड़े रहेंगे, फिर जब आदम के पुत्र को धरती पर बसाया गया तो उसे अधिसूचित कर दिया गया था कि शैतान तुम्हारा दुश्मन है वह तुम्हें अपने घर से निकालने का अंथक प्रयास करेगा लेकिन उसके छल में मत आना।

प्रथम इंसान आदम की संतान दस शताब्दी तक वादे पर कायम रही और अपने ही घर में निवास किए रही जिस में उसे उसके निर्माता ने बसाया था, लेकिन दस शताब्दियां बितने के बाद शैतान आदम की संतान के पास आया और उन्हें उकसाया कि तुम्हारे पाँच बड़े महापुरुष (वद्द, सुआअ, यग़ूस, यऊक़ और नस्र) थे, जो इस दुनिया से जा चुके हैं उनकी याद ताजा रखने के लिए उनकी प्रतिमा बनाकर अपनी सभाओं में रखा करो ताकि उन्हें अपने लिए आदर्श बना सको।

आदम अलैहिस्सलाम के बेटों को यह बात अच्छी लगी और उन्होंने उन पांचों की प्रतिमा बनाकर अपनी सभाओं में स्थापित कर दिया, जब बितते दिनों के साथ मूर्तियां बनाने वाले गुजर गए तो राक्षस ने उनकी संतान के पास आकर यह कहना शुरू कर दिया कि तुम्हारे पूर्वज संकट में इन मूर्तियों से मांगते थे और उन्हें मिला करता था, इस प्रकार उन्हों ने मूर्ति पूजा आरम्भ कर दिया।
यह पहला समय था जब शैतान आदम अलैहिस्सलाम के बच्चों को उसके वास्तविक घर से निकाल बाहर किया था। और अलग घर बनाकर उस में उनको बसाने में सफलता प्राप्त कर ली थी।

लेकिन अल्लाह की दया जोश में आई और मनुष्यों को अपना भूला हुआ पाठ याद दिलाने और अपने असली घर की ओर लौटाने के लिए हज़रत नूह अलैहिस्सलाम को भेजा, हज़रत नूह अलैहिस्सलाम साढ़े नौ सौ वर्ष तक अपने समुदाय को उनके असली घर की ओर बुलाते रहे। जब घमंड समुदाय घर वापसी के लिए तैयार न हुआ तो तूफान  द्वारा उन्हें नष्ट कर दिया गया।

फिर हर युग में उसी घर की ओर वापस करने के लिए संदेष्टा भेजे गए, जिनकी संख्या एक लाख चौबीस हजार तक पहुंचती है। सारे संदेष्टाओं का नारा एक ही था, और वह थाः घर वापसी।

यह घर पूर्ण सौंदर्य और बेहतरी के साथ बनाया गया था, लेकिन उसके एक कोने में एक ईंट का स्थान खाली था, मानो लोग उसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं और उस पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहते हैं “यह ईंट क्यों न लगाई गई?”

जब सातवीं शताब्दी में दुनिया अपनी पूरी जवानी को पहुँच गई तो अल्लाह ने घर की इस ईंट को भी पूरा कर दिया। और उस घर को ऐसा मज़बूत किला बना दिया कि सभी जिन्नात और इनसानों की लौकिक और पारलौकिक सफलता उसी घर में शरण लेने पर ठहरी, जिसने उस में शरण ली वह लौकिक और पारलौकिक जीवन में सफल हुआ और जो घर से बाहर रह गया वह लोक और प्रलोक में विफल रहा। क़ुरआन ने कहाः

 “दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में इस्लाम ही है।” (क़ुरआनः 3: 19)

दूसरे स्थान पर कहाः

 “जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा।”   (क़ुरआनः 3: 85)

और अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रवचनों में आता हैः

“क़सम है उस ज़ात की जिसके हाथ में मेरी जान है जो कोई भी इस उम्मत का चाहे वह ईसाई हो या यहूदी हो
या मजूसी, मेरे संदेश के संबंध में सुनता है और मुझ पर ईमान लाए बिना मर जाता है वह जहन्नमी है।” (सही मुस्लिमः 153)

यही वह असल घर है जिसे हम इस्लाम कहते हैं। जिस पर हर बच्चे की पैदाइश होती है। क़ुरआन ने कहाः

“अतः एक ओर का होकर अपने रुख़ को ‘दीन’ (इस्लाम) की ओर जमा दो, अल्लाह की उस प्रकृति का अनुसरण करो जिस पर उसने लोगों को पैदा किया। अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नहीं जा सकती। यही सीधा और ठीक धर्म है, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।” (क़ुरआनः 30:30)

और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रवचनों में आता हैः

“हर बच्चा इस्लाम पर पैदा होता है यह अलग बात है कि उसके माता पिता उसे यहूदी बना देते हैं या इसाई बना देते हैं या अग्नीपूजक बना देते हैं।” (सही बुख़ारीः 1385)

किसी के मन में यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि आख़िर इस्लाम की ओर पलटना ही घर वापसी कैसे है? तो इसका संक्षिप्त उत्तर यह है यह धर्म इंसान को उसके ऊपर वाले असल स्वामी और प्रभू से डाइरेक्ट मिलाता है, यहाँ बीच में किसी मेडिल मैन की ज़रूरत नहीं है। जातिवाद और भेदभाव का पूर्ष रूप में खंडन करता है और प्रत्येक मानव को एक माता पिता की संतान ठहराता है। मन को शांति प्रदान करने वाली शिक्षायें देता और जीवन के हर विभाग में मानव का मार्दगर्शन करता है। इसके सोर्सेज़ भी बिल्कुल प्रमाणिक और सुरक्षित हैं। यह स्वभाविक धर्म है। यह प्रकृति की आवाज़ है। यह हवा और पानी के जैसे हर इंसान की ज़रूरत है, हवा और पानी शरीर की ज़रूरत है तो इस्लाम आत्मा की ज़रूरत है। अतः सपूत आत्माएं मनुष्य के बनाए हुए कच्चे घरोंदों को तोड़कर इस मजबूत घर में शरण लेने लगीं जो उसके निर्माता का घर था और जिस में उसी का कानून चलता था, यहां तक कि दुनिया के कोना कोना में इस घर की ओर निस्बत करने वाले फैल गए और मानवता के सामने उसका परिचय कराया और ऐसा व्यावहारिक नमूना पेश किया कि पूरी दुनिया उसकी ओर लपकने लगी।

लेकिन जब मुसलमानों के मन-मस्तिष्क से इस घर की महानता निकल गई, उनके अंदर से निमंत्रण चेतना निकल गई और वह घर वापस कराने में सुस्ती बरतने लगे तो शैतान के चेले चुस्त हो गए,  हर और कच्चे कच्चे घरोंदे बना लिए गए और उसकी ओर लोगों को “घर वापसी” के नाम से बुलाया जाने लगा।

लेकिन सवाल यह है कि घर है कहां कि घर वापसी होगी, हिंदू धर्म हो या दूसरे अन्य धर्म अपने विरोधाभासों, मतभेदों और धार्मिक उथल पथल के कारण अपने अंदर किसी प्रकार का आकर्षण नहीं रखते, बहुदेववाद और विभिन्न देवताओं की पूजा पर सम्मिलित धर्म आख़िर स्वाभाविक धर्म पर पैदा होने वाले इंसानों का धर्म कैसे हो सकता है। एक मुसलमान के लिए इस्लाम का सौभाग्य प्राप्त करना दुनिया की सारी नेमतों में सब से बढ़ कर नेमत है, मुसलमान चाहे कितना ही कमजोर हो इस्लाम के सार्वभौमिक शिक्षाओं को छोड़ कर स्वयं बनाये हुए धर्म को गले नहीं लगा सकता।

यह काम तो मुसलमानों का था कि वे इस्लाम पर जन्म लेने वाले दुनिया के इंसानों को फिर दोबारा इस्लाम की ओर बुला कर उनकी “घर वापसी” कराते ताकि वे मुक्ति मार्ग पर अग्रसर हों और मरनोपरांत जीवन में सफलता प्राप्त कर सकें कि मूल घर वापसी तो इस्लाम की ओर पलटना है जिस पर हर बच्चे का जन्म होता है।

हिन्दु धर्म के धार्मिक ग्रन्थ भी एकेश्वरवाद, ईश्दुतत्व और महाप्रलय के दिन की आस्था का समर्थन करते हैं और उन मैं मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आगमन की भविष्य-वाणियां भी मौजूद हैं, खुद उनके बड़े बड़े पंडितों ने अपनी धार्मिक पुस्तकों के हवाले से साबित किया है कि वेदों में 31 स्थान पर नराशंस और पुराणों में कल्की अवतार की जो विशेषतायें बयान की गई हैं उन से अभिप्राय मुहम्मद साहब ही हैं जिन्हें माने बिना हिंदुओं को मुक्ति नहीं मिल सकती।

मेरी बात का सारांश यह हुआ कि इस्लाम की ओर पलटना ही असल घर वापसी है ।।
इसलिये बुद्धिमान है वो मनुस्य जो विचारणीय बातों में विचार कर सत्य को खोजने में संघर्स करें , तर्क वितर्क कर अपने आप को ही श्रेष्ठ और सच्चा समझना ये किसी बुद्धिजीवी का काम नहीं , बाकी जीवन आपका है जैसा चाहो वैसा जिओं , हम तो सिर्फ समझा ही सकते है ।।
आपका शुभ चिंतक
आपका भाई
अब्दुल रहमान (महेन्द्र पाल सिंह)
और संक्षिप्त में जानकारी के लिये ये पोस्ट पढ़े- तो इस्लाम एक बुरा धर्म हे??

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Post By-Pathan

Monday 15 June 2020

क्या भगवा आतंकियों को साम्प्रदायिक नफरत का जिम्मेदार ठहराना उचित है ?

क्या भगवा आतंकियों को साम्प्रदायिक नफरत का जिम्मेदार ठहराना उचित है ?


आपने भारत में पाये जाने वाले कुछ ऐसे नफरती, अत्याचारी और दंगाईयो को देखा होगा जो मुसलमानो को निशाना बनाते है और इस्लाम को हमेशा से अत्याचारी, मार काट और शोषण वाला धर्म पेश करते है और आये दिन मुसलमानो पर अत्याचार करते है और आतंकवाद से मुसलमानो को जोड़ते हैं पर क्या ये नफरती दंगाई लोग धर्म का चोला ओढ़ कर, खुद को सच्चा धार्मिक और अधर्मियों अत्याचारियो का नाश करने वाला बताते है? लेकिन क्या आप इन तथाकथित धार्मिक लोगो की युगों से चली आ रही मार काट, अत्याचार, लूटमारी, बलात्कार और शोषण से आप अवगत है? इन वहशी दरिंदो दंगाईयो की हक़ीक़त जानते है?

तो आज में आपको बताता हु की किस तरह इनका अत्याचार बरसो से चला आ रहा है आधुनिक युग में भी ।

शुद्र या दलित से शुरू करते हैं जो गरीब पिछड़े लोग हैं इन्हें हमेशा से पिछडा रखा गया है यह भी इंसान है आम नागरिक है, खून का रंग भी लाल ही है पर क्या समानता है ? 
क्या भेदभाव से बचे हुए है?

दलित अंग्रेज़ी शब्द डिप्रेस्ड क्लास का हिन्दी अनुवाद है। डिप्रेस्ड क्लास की जनगणना 1911 में की गई, जिन्हें वर्तमान में अनुसूचित जातियां(SC ST) कहा जाता है। दलित का अर्थ पीड़ित, शोषित, दबाया हुआ एंव जिनका हक छीना गया हो होता है ।

मूल रूप से जानवर और इंसान में यही विशेष फर्क है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है।
धार्मिक स्वर्ण लोगो ने दलित कास्ट को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुँचा दिया है,

जातिवादी की आम परिभाषा ये है- जो व्यक्ति जाति के आधार पर ख़ुद को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझे वह जातिवादी है.

दलित कब से ख़ुद को श्रेष्ठ समझने लगे कि वे जातिवादी हो गए? जाति के आधार पर होने वाले अन्याय ज़ुल्म का प्रतिकार अगर जातिवाद है तो न्याय और इंसानियत की गुंजाइश कहाँ है?

अंबेडकर मानते थे कि अगर हिंदूराष्ट्र भारत बना तो वह दलितों के लिए अंग्रेज़ी राज के मुक़ाबले कहीं अधिक क्रूर होगा, उन्होंने बीसियों बार इस आशंका के प्रति आगाह किया था.

पैदाइश की बुनियाद पर होने वाले अपमान-अन्याय-अत्याचार को धर्म और संस्कृति मानना, उन्हें सामान्य नियम बताकर उनका पालन करना, और पालन न करने वालों को 'दंडित' करना, ये सब संविधान और क़ानूनों के बावजूद आज भी सनातन चलन में है और हम इस आधुनिक युग में देख रहे हे ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से हिंदू एकता का हिमायती रहा है, वह जातियों में बँटे हिंदुओं को एक राजनीतिक शक्ति बनाना चाहता है ताकि वैसा हिंदू राष्ट्र बन सके जो उनकी सबल, स्वाभिमानी और गौरवशाली राष्ट्र की कल्पना है.

संघ को दलितों का भी साथ चाहिए लेकिन वह हिंदू धर्म के वर्णाश्रम विधान के ख़िलाफ़ क़तई नहीं है नाही कोई ऐसा प्रचार करते पाये जाते हैं, संघ से जुड़े अनेक बुद्धिजीवियो और नेताओं ने जाति पर आधारित व्यवस्थित अन्याय, जुर्म, अत्याचार के लिए कभी अँग्रेज़ों को, कभी मुसलमानों को ज़िम्मेदार बताया, लेकिन सामाजिक न्याय की ज़िम्मेदारी ख़ुद कभी स्वीकार नहीं की, बल्कि उनकी कोशिश जाति पर आधारित अन्याय को ही झुठलाने और बदनाम करने की रही।।

आजादी के समय से ही आंकड़ों को देखा जाए तो हमे मालूम होता है की दलितों का नरसंहार सेकड़ो नही हजारो बार हुआ हे और स्वर्ण आतंकियों ने हजारो पिछड़े लोगो दलितो को मारा है

विकिपीडिया पर पढ़ सकते हे आप 1948 से लेकर 2019 तक 
 

फ़रवरी 2020 NCRB की रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश और गुजरात में सबसे ज्यादा बलात्कार, मारकाट और अत्याचार दलितों पर किया गया-

आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 2014 से 2018 तक 47% की पर्याप्त वृद्धि हुई है, गुजरात में दलितों के खिलाफ 26%, हरियाणा में 15%, मध्य प्रदेश में 14% और महाराष्ट्र में 11% की वृद्धि हुई है। विडंबना यह है कि इन वर्षों में इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का शासन था।



देश के वीर जवान सेनिको पर भी शोषण किया और वही कानपूर में 30 से ज्यादा पर अत्याचार हुए !

2016 की HindustanTimes की रिपोर्ट अनुसार उत्तरप्रदेश टॉप लिस्ट में और गुजरात 2nd नम्बर आता हे और Cases को देखा जाए तो 2015-16 तक 8946 केस रिकॉर्ड किये गए-


National Herald India की रिपोर्ट अनुसार 2014 के बाद अधिक शोषण किया गए और National Crime Record Bureau  द्वारा आंकड़े भी बताये गए -


औसत प्रतिशत देखा जाए तो दलितों पर 746% अत्याचार, मारपीट और बलात्कार जैसी घटना और बढ़ी है।

हमारे देश में दलितों पर अत्‍याचार (Atrocities against SCs) की ऐसी घटनाएं समय समय पर सामने आती रहती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में दलितों पर अत्याचार के 42793 मामले दर्ज हुए। 2017 में यह आंकड़ा 43,203 का था, जबकि 2016 में दलितों पर अत्‍याचार के 40,801 मामले दर्ज किए गए।


NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी में 2018 में 11924 मामले दर्ज हुए। यूपी के बाद बिहार दूसरे नंबर पर था, जहां दलित अत्‍याचार के 7061 मामले दर्ज हुए। यूपी और बिहार के बाद मध्‍य प्रदेश और राजस्‍थान में सबसे ज्‍यादा मामले दर्ज किए गए हैं। मध्‍य प्रदेश में 4753 मामले और राजस्‍थान में 4607 मामले दर्ज हुए थे।
Human Rights Watch(HRW) की रिपोर्ट(world report 2019) को भी देखिये- किस तरह पिछड़े और माइनॉरिटीज पर जुल्म और अत्याचार पर खेद जताया गया हे worldwide आलोचना की गयी-


19 मई 2019 को Indian Express में छपे आर्टिकल में NCRB की रिपोर्ट अनुसार हर दिन भारत में 4 दलित औरतो का रेप होता हे और 23% दलित और माइनॉरिटीज औरते होती हे -


लॉजिकल इंडिया ने भी इस पर लिखा है


बच्चियो से लेकर जवान औरतो तक का शोषण छेड़-छाड़ बलात्कार स्वर्ण लोगो द्वारा होता हे-


The Hindu में छपे आर्टिकल के अनुसार 65% प्रतिशत दलितों पिछडो का शोषण होता आ रहा हे- पढ़िये-


India Exclusion Report 2013-14 और National Crime Records Bureau  और official statistics  के अनुसार 2007-2017 तक 66 प्रतिशत अत्याचार दलितों पर हुआ है और हर 15 मिनट्स में अत्याचार होता है -- रिपोर्ट पढ़िये ,आप दंग रह जायगे -


कुछ उदाहरण -
Hindu Terrorism unleashed on non Hindus and Dalits, in last three days three persons have been murdered.

10 June, 2020 17-year-old Dalit boy shot dead for entering UP temple

10 June, 2020 Father Alleges Son Killed for Converting to Christianity in Odisha


9 June, 2020 Pregnant woman in Telangana allegedly killed by parents for relationship with OBC man




उदाहरण बहुत से है, जिनमे अभी तक आंकड़ो को कलेक्ट(संकलित)करके गिनती की जाए तो लाखो दलितों का नरसंहार और शोषण बलात्कार अत्याचार हुआ है, कश्मीरी पंडितो की दुहाई देने वाले गरीब निचली जाती के मूलनिवासी लोगो और अल्पसंख्यको के लिये कभी आंसू नही बहाते, ऐसा क्यों?

मुसलमानो को बदनाम करने वाले और अत्याचार करने वाले, क्या यह सब उच्चकोटि के लोग अपने गिरेबान में झांकेंगे??
क्या इनका रवैया करतुते, शोषण किसी राक्षक जंगली जानवर की तरह नही हे?

दलित औरतों को खेत मे घसीट कर ले जाते हैं  और बलात्कर कर देते है ये इनके लिए उचित है लेकिन उनसे शादी करने पर पाप लगता है ऐसा क्यों है?

जब कोई दलित घोड़े पर बैठ कर अपनी शादी करता है तो उस पे पत्थर फेंके जाते हैं, ऐसा क्यों?

Saturday 6 June 2020

ईश्वर का असली ग्रंथ कौन सा है ?

{सवाल}
मेरे सामने सभी बढ़े धर्मों के धर्मग्रंथ रखे हैं, मैं जानना चाहता हूँ कि इसमें ईश्वर का असली ग्रंथ कौन सा है ? यह तो मैं भी समझता हूँ कि यह सभी ग्रंथ ईश्वर के नहीं हो सकते क्यों कि इनमे अलग अलग बातें लिखी हैं, अब अगर ईश्वर एक है जैसा कि लगता है कि वह एक ही है तो उसकी बात भी एक ही होगी, तो मेरे पास ऐसी क्या कसौटी है जिस पर मैं इन्हें घिस कर परख सकूँ, और सही नतीजे पर पहुँच सकूँ ?

{जवाब}

वैसे तो ईश्वर की किताब को जांचने के लिए बहुत सी कसौटी हैं जिन पर उसे परखना चाहिये और उन सब पर उसे खरा उतरना चाहिए, लेकिन मैं आप की आसानी के लिए सिर्फ वही टेस्ट लिख देता हूँ जिनके लिए बहुत ज़्यादा इल्म (ज्ञान) की आप को ज़रूरत ना पड़े और आप का विवेक भी कहे कि हाँ यह टेस्ट तो ईश्वर कि किताब को पास करने ही चाहियें.
सबसे पहले तो आप को अपने अन्दर से हर तरह के पूर्वाग्रह पक्षपात को बिलकुल निकालना होगा यह बहुत ज़रूरी है अगर आप ऐसा नहीं करते तो इन किताबों के बारे में आप इन्साफ से फैसला नहीं पर पाएंगे, आप चाहे नास्तिक हों या किसी एक धर्म को मानने वाले हों किसी भी हाल में आप के अन्दर दूसरे धर्म के लिए जर्रे के बराबर भी नफरत नहीं होनी चाहिए, पहले अपने आप को एक ईमान दार जज के रूप में पूरी तरह तैयार कर लीजये. इसके बाद इन किताबों को इन कसौटी पर परखये.

1. उस किताब का खुद दावा हो कि वह खुदा कि तरफ से है. यानि यह बात उसमे खुद लिखी हो की वो ईश्वर की किताब है कहीं ऐसा ना हो कि उस किताब का खुद यह दावा ही ना हो कि वह ईश्वर की तरफ से है और हम उसे अपनी तरफ से ईश्वर की किताब समझ रहे हों.

2. उसका दावा हो कि वह सब इंसानों की हिदायत के लिए है. यानि उसमे खुद साफ़ तौर पर लिखा हो कि वह किताब सब इंसानों और क़यामत तक के लिए बराबर हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए ईश्वर ने हम इंसानों को दी है. क्यों कि यह भी मुमकिन है कि वह किताब तो ईश्वर की ओर से है लेकिन हमारे लिए ना हो बल्कि किसी खास समय या किसी खास जगह के लोगों के लिए हो तो भी वो हमारे लिए बेकार है.

3. उसमे तज़ाद (विरोधाभास) ना हो. यानि अगर वो वाकई ईश्वर की किताब है और बिना मिलावट के हम तक पहुँची है तो उस में परस्पर विरोधी बाते नहीं हो सकती क्यों कि ईश्वर गलती नहीं कर सकता अगर वो गलती करे तो वो ईश्वर नहीं हो सकता.

4. उसमे इंसान को बनाने का मक़सद साफ़ तौर पर लिखा हो क्यों कि यही विषय है जो धर्म से जुड़ा है और धर्म के अलावा किसी और रास्ते से हम इस सवाल का जवाब नहीं ढूंड सकते, अगर उसने इन बिन्यादी सवालों ही के जवाब नहीं दिये कि हम कहाँ से आए हैं? क्यों आए हैं? हमें कहाँ जाना है? क्यों जाना है? या ईश्वर ने यह दुनिया किस मकसद से बनाई है तो भी उस किताब को ईश्वर की किताब नहीं माना जाना चाहिए, और अगर वह ईश्वर की है भी तो वह हमारे लिए नहीं हो सकती.

5. अगर उस किताब में कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो इंसानी फितरत कहती है कि वो ईश्वर में नहीं हो सकती तो भी वो किताब ईश्वर की किताब नहीं हो सकती, जैसे उस किताब में लिखा हो कि ईश्वर झूठा है, ईश्वर कमज़ोर है, वो थक जाता है, उसकी कोई शक्ति कभी उसमे नहीं भी रहती, वह अपनी शक्ति दूसरों को भी दे देता है जिससे वह खुद कमज़ोर हो जाता है, ईश्वर को किसी बात का पता नहीं था, उसे कोई धोका दे देता है, वो सो जाता है, या किसी से हार जाता है, कोई उसे मजबूर कर देता है या ईश्वर एक से ज़्यादा हैं, या उसने यह दुनिया बे मकसद ही बनादी है, या वह बे मकसद के कामों में लगा रहता है वगैरह.
यह तो वह चीज़ें थीं जो आप को ग्रंथ के अन्दर तलाश करनी हैं.
अब कुछ बातें वह हैं जो आप को ग्रंथ के बाहर देखनी है.

6. उस किताब की हिफाज़त यकीनी हो, यानि उस का पूरा इतिहास हमारे सामने मौजूद हो जिससे हम इस नतीजे पर पहुँच सके कि हां ये वही किताब है और बिलकुल ऐसी ही है जैसे इसे सबसे पहले लिखा गया था. अगर वह इस कसोटी पर खरी नहीं उतरती तो भी वो किताब ईश्वर की किताब नहीं हो सकती और अगर हो भी तो हमारे लिए नहीं हो सकती क्यों कि अगर वो हमारे लिए होती तो ईश्वर की जुम्मेदारी थी कि वो उसे हम तक बिना मिलावट के पहुंचाता.

7. उसमे कोई बात ऐसी ना हो जो झूठी साबित हो चुकी हो. यानि भूत काल या भविष्य कि अगर कोई बात उसमे ऐसी लिखी है जो साफ़ तौर पर बिलकुल झूठी है तो भी वो ईश्वर की किताबा नहीं हो सकती क्यों कि ईश्वर के लिए यह ज़रूरी है कि उसे भूत काल या भविष्य काल का सही सही ज्ञान हो.

8. जिसने वो किताब पेश की है उसके बारे में हमें सारी जानकारी हो. यानि यह बात यकीनी हो कि जिसने वो किताब सबसे पहले लोगों के सामने पेश की थी वो वाकई उसी ने की थी और इसी दावे से पेश की थी कि वह ईश्वर की किताब पता होनी चाहिए कि क्या उसने खुद उस किताब के अनुसार अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी है या बाद में वो बात से फिर गया था या उसने किताब के अनुसार अमल (कर्म) नहीं किये. इसकी सारी जानकारी होना ज़रूरी है.

9. ज़िन्दा ज़ुबान में हो. यानि उस किताब की भाषा आज भी बहुत सारे लोग बोलते हों लिखते हों उस भाषा में अखबार और मैगज़ीन छपते हों और वो बिकते हों, क्यों कि अगर वो किताब ऐसी भाषा में है जो पूरी तरह जिन्दा ना हो या बहुत थोड़े से लोग ही उस भाषा को जानते हों तो भी वो किताब हमारे लिए बेकार है, फिर तो वह किताब बहुत थोड़े लोगों के हाथ की कटपुतली बन कर रह जाएगी वो थोड़े से लोग जिस तरह चाहेंगे उस में लिखी हुई बातों को अपने हिसाब से अनुवाद कर के बताया करेंगे. जिससे हम सही बात तक नहीं पहुँच पाएंगे.

यह वे 9 चीज़ें हैं जो एक आम आदमी भी समझ सकता है और इन कसौटी पर हर ग्रंथ को परख सकता है. जो किताब भी यह सारे टेस्ट पास करले उसको ईश्वर की किताब मानये और जो किताब भी इनमें से किसी एक टेस्ट में भी फ़ैल हो जाए वो रद्द करने के काबिल है.
साथ ही एक बहुत ज़रूरी बात यह है कि जब आप यह सवाल किसी ग्रंथ के बारे में उसे परखने के लिए किसी से करेंगे तो यह ज़रूरी है कि उस ग्रंथ के मानने वाले और माहिर लोगों ही से उसकी जानकारी लें और जो वो बताएँ उसके सबूत उनसे मांगे रेफरेंस ले फिर उनको खुद चेक करें.

ऐसा बिलकुल ना कीजियेगा कि कुरआन के बारे में आप किसी पंडित से जानकारी लें और वेद के बारे में किसी मौलाना से पूछें.

अगर आप की नियत बिलकुल सच्ची है, और आप इन 9 टेस्ट से उन सब किताबों को जो आपके सामने रखी हैं गुजारेंगे, तो आप को मुबारक हो बहुत ज़ल्द आप सही ग्रंथ तक पहुँचने वाले हैं.
शुक्रिया.

इतिहास के झरोखे से शूरवीरो की गाथा

मुग़ल और राजपुताना शौर्य भाईचारा और आपसी सम्बन्ध-

मेडिकल साईंस कहता है कि जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसमें 23 क्रोमोज़ोन उसके पिता के होते हैं और 23 क्रोमोज़ोन उसकी माता के भी होते हैं।

मुग़लों और राजपुताना के वैवाहिक संबन्धों में मेडिकल साईंस के इस सिद्धांत को मिटा दिया गया है और मुगलों को इस देश के आक्रांता के रूप में लगभग स्थापित ही कर दिया गया है।

मुगलों के नामो निशान मिटा देने की सनक लिए एक मुर्खमंत्री इस कुंठा में ऐसा कर रहे हैं क्युँकि उनके पुर्वजों ने अपने साम्राज्य को बचाने और अपने प्रतिस्पर्धी राजाओं पर विजय पाने के लिए मुगलों के हर शहंशाह को अपनी 2-2 , 4-4 बेटियाँ दीं , मुगलों के ससुर बनकर यह अपने सीमावर्ती राजाओं पर धौंस जमाते रहे।

आईए मुगलों और राजपुताना संबन्धों का पूरा इतिहास देखते हैं।

अकबर के कार्यकाल में मुगलों से राजपूतों ने 34 बेटियाँ ब्याहीं , जहाँगीर के शासन काल में 7 , शाहजहाँ के शासनकाल में 4 तो औरंगज़ेब के शासन काल में 8 और इस तरह मुगलों ने 53 राजपूत राजाओं की बेटियों से शादियाँ कीं।

अर्थात क्रोमोज़ोन की थियरी के अनुसार मुग़ल आधा राजपूत ही थे क्युँकि उनकी राजपुताना माताओं का 23 क्रोमोजोन उनके अंदर था।

इस तरह के विवाह की सबसे पहले शुरुआत की बहमनी सुल्तान फ़िरोजशाह के आक्रमण से घबराए और पराजित हुए देवराय प्रथम (1406-1422 ई.) ने अपनी पुत्री का विवाह फिरोजशाह से करके अपनी जान बचाई।

हुमायूँ ने भी एक शादी राजपुताना शौर्य वाले एक राजा की बेटी से पर उससे मुगल-राजपुताना वंश आगे नहीं बढ़ा और फिर अकबर का ज़माना आ गया और राजपूताना शौर्य वाले राजपूत राजाओं में महान अकबर को दामाद बनाने की होड़ सी लग गयी।

अकबर से 6 राजपूत राजाओं ने अपनी बेटी ब्याही

1- आमेर के राजा भारमल ने अकबर से हार के डर से बेटी जोधा की शादी जनवरी 1562 में अकबर से कर दी।

2- बीकानेर के राजा राय कल्याण सिंह ने अपनी भतीजी का विवाह 15 नवंबर 1570 को उसी अकबर से कर दिया।

3- जोधपुर के राजा मालदेव ने अपनी बेटी रुक्मावती को भी अकबर के हवाले कर दिया और अपनी जान और सिंहासन बचाया।

4- नगरकोट के राजा जयचंद ने अपनी बेटी को अकबर के हवाले करके बहादुरी दिखाई और अपने साम्राज्य को बचाया।

5- डुंगुरपुर के राजा रावल हरिराज ने भी अपनी प्रतिष्ठा बढाने के लिए अपनी बेटी नाथीबाई को अकबर से ब्याह दिया।

6- यही अस्त्र मोरता के राजा केशवदास ने भी प्रयोग किया और अपनी बेटी अकबर से ब्याह दी।

यही नहीं मुगलों की अब अगली पीढ़ी में भी राजपूतों ने बेटी देने का सिलसिला जारी रखा

अकबर-जोधा के 23-23 क्रोमोजोन वाली मुगल-राजपुताना औलाद जहाँगीर(सलीम) पर भी राजपूत राजाओं ने अपनी बेटियाँ खूब न्योछावर कीं

1- आमेर के राजा भगवंतदास ने अपनी बेटी की शादी जहाँगीर से की

2- फिर आमेर का दूसरा राजा जगत सिंह भी अपनी बेटी जहाँगीर से ब्याह दिया

3- उसके बाद ओरछा का राजा रामचंद्र बुंदेला भी अपनी बेटी जहाँगीर के हवाले कर आया।

4-मारवाड़ (जोधपुर) के मोटा राजा उदयसिंह ने भी अपने सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के अभिप्राय से अपनी पुत्री मानीबाई का विवाह जहाँगीर के साथ कर दिया।

5- महान अकबर का एक और बेटा था "दनियाल" 2 अक्टूबर 1595 को जोधपुर के राजा रायमल ने अपनी बेटी की शादी अकबर के इस बेटे "दनियाल" से कर दी।

6-अकबर का पोता और जहाँगीर का उसी मिक्स क्रोमोज़ोन वालाव बेटा था "परवेज़" , अप्रैल 1624 में जोधपुर के राजा गजसिंह की बहन से जहांगीर के बेटे राजकुमार परवेज की ।

7- 1654 में राठौर के राजा अमरसिंह ने भी अपनी बेटी से दाराशिकोह के बेटे सुलेमान से शादी करा दी।

और सबसे चौंकाने वाला तथ्य और विवाह देखिए

इस देश में आज हिन्दूकुश और हिन्दूविरोधी घोषित कर दिए गये औरंगज़ेब जिनकी सगी दादी अर्थात शाहजहाँ की माँ जगत गोसाई थीं उन हिन्दूकुश और हिन्दूवारोधी औरंगजेब की भी दो पत्नियां राजपूताना गौरव वाले घरों से थीं , और उनसे पैदा हुए बच्चे कई बार बाक़ायदा उत्तराधिकार की जंग में जीते। 

यही नहीं हिन्दूविरोधी औरंगजेब ने अपने तीन बेटों की शादी भी राजपुताना गौरव वाले घरों की बेटियों से की।

1- 17 नवंबर 1661 को किशनगढ़ के राजा रूपसिंह राठौर की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. मुअज़्ज़म की शादी हुई।

2- 5 जुलाई 1678 को आंबेर के राजा जयसिंह के बेटे कीरत सिंह की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. आज़म की शादी हुई।

3- शेखावत के राजा अमरसिंह ने 30 जुलाई 1681 को अपनी बेटी की औरंगज़ेब के बेटे कामबख्श की शादी करा दी।

कहाँ तक इतिहास मिटाओगे ? मुगलों के खून में भी राजपुतानियों का खून शामिल है , उन बुआओं , मौसियों का क्या करोगे ? क्या वो शूरवीर गलत थे या उनकी बेटिया गलत थी?? या उस वक्त के राजपूत राजा गलत थे,जो अपनी सेनाओ से लेकर बेटियो तक मुग़लों से मेंल जोल बनाये रखे हुए थे

मुगल तो सब आपके रिश्तेदार ही हैं "सब आपस में भाईचारे से उस वक्त राज किया करते थे,आज जिस तरह से नफरत के बीज बोये जा रे हे ,यह देश के लिये खतरनाक हे।

इस्लाम पर लगाये गए 12 आक्षेपों के अत्तर

【इस्लाम पर लगाये गए 12 आक्षेपों का उत्तर】


१) ईश्वर सर्वव्यापक है। जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है।

उत्त्तर:  सर्व्यापक का अर्थ है कि वह हर वस्तु में विधमान है और कण कण में है। अगर वह हर वस्तू में विद्यमान है तो उसने आकार ले लिया और फिर ईश्वर निराकर कैसे रहा? तो इसलिए उसके सर्व्यापक होने का सनातनी मत गलत प्रमाणित हो जाता है।  जबकि  इस्लाम तो इसके उलट बात करता है की वह निराकर है और वह कण कण में नही, बल्कि कण कण उसके अधिकार में है, उसकी देख रेख में है।

अल्लाह सातवे आसमान है, इसका प्रमाण क़ुरान से दिजीए पहले? वैसे किसी भी आम हिन्दू भाई से पूछ लो की ईश्वर कंहा है वो आकाश की तरफ इशारा करेगा। तो इसका अर्थ क्या है? क्या ईश्वर वंहा विराजमान है या उसका अस्तित्व आकाश के पार है? निस्संदेह उसका अस्तित्व सबसे ऊपर है जिसका स्वरूप निराकार है और उसका पूर्ण अस्तित्व हमारी समझ के बाहर है। जैसे ऋग्वेद (10:81:2) कहता है की ईश्वर समस्त जगत का दृष्टा है, तो क्या इसका अर्थ हुआ कि ईश्वर की आंखें है? बल्कि अगला मंत्र तो ये बताता है कि ईश्वर तो सब दिशाओं की और मुख, बाह और पाँव वाला है।

२) ईश्वर कार्य करने में किसी की सहायता नहीं लेता। जबकि अल्लाह को फरिश्तों और जिन्नों की सहायता लेनी पडती है।

उत्तर:  वैदिक ईश्वर आत्मा और प्रकृति के द्वारा रचना करता है। वो इनकी सहायता क्यों लेता है?  सनातन धर्म ने तो अपने हर एक काम के लिए एक देवी देवता बना रखे है। वर्षा का, सूर्य का, वायु का, जल का, विद्या का आदि आदि। 33 करोड़ है।  यंहा तक कि सृष्टि बनाने, चलाने, नष्ट करने वाले भगवान भी अलग अलग है। क्या ईश्वर इन पर निर्भर है?

इसके उलट अल्लाह किसी की सहायता नहीं लेता। सिर्फ आदेश देता है। फ़रिश्ते उसकी बनायी सृष्टि है जो उसके आदशों के अनुसार कार्य करती है और इसलिए उसके ही अधीन है। जिन्न, इंसान, ब्रह्मांड, प्रकृति सब अल्लाह के अधीन है। सृष्टि का निर्माण, संचालन, संहार सब उसके अधीन है। उसे किसी की आवश्यकता नहीं। ये ब्रह्माण्ड उसकी मशीन है और फ़रिश्ते आदि पुर्ज़े।

जैसे ब्रह्मांड बनने में खरबों वर्ष लगे। अल्लाह चाहता तो इसे एक झटके में बना देता। पर उसके काम करने का एक विशेष तरीका है जो सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए कोई कहे कि अल्लाह ने समय का सहारा लिया ब्रह्मांड बनाने में, ये एक कुतर्क होगा। 

३) ईश्वर न्यायकारी है, वह जीवों के कर्मानुसार नित्य न्याय करता है।  जबकि अल्लाह केवल क़यामत के दिन ही न्याय करता है, और वह भी उनका जो की कब्रों में दफनाये गए हैं।

उत्तर:  ईश्वर अगर नित्य न्याय करता है तो स्वर्ग नर्क किसके लिए बनाया है? नित्य न्याय करता है तो धरती पर अधिकतर लोग जीवन भर पाप करते है और आराम का जीवन बीता कर मर जाते है, बिना किसी दंड को भोगे या थोड़ा सा दंड भोग कर। जैसे भ्रष्ट नेता, अपराधी, बलत्कारी, खूनी। तो फिर ईश्वर ने न्याय कंहा किया? और हमारे साथ नित्य न्याय हुआ है पहले भी, कैसे मान ले, जबकि हमारे पुर्नजन्म के दोष, पाप, योनी तक हमें नहीं बताई गई है।

इसके उलट इस्लाम के अनुसार अल्लाह कुछ कर्मों फल और दंड यंही देता है, कुछ थोड़ा यंहा थोड़ा वंहा और बाकी बचे अधिकतर कर्मो का मरने के बाद, स्वर्ग और नर्क के रूप में। यह बिलकुल झूट है कि वह सिर्फ कब्रो में दफनाए लोगो के कर्मो का हिसाब करेगा क्योंकि इसका कोई प्रमाण ही नहीं है। बल्कि सबका करेगा।

४) ईश्वर क्षमाशील नहीं, वह दुष्टों को दण्ड भी अवश्य देता है अर्थात् न्यायकारी है। जबकि अल्लाह दुष्टों, बलात्कारियों के पाप क्षमा कर देता है अर्थात् मुसलमान बनने वाले के पाप माफ़ कर देता है।

उत्त्तर: ऊपर लिखा है कि ईश्वर क्षमाशील नही है। अगर ईश्वर क्षमाशील नहीं है तो फिर वह ईश्वर ही कैसे हुआ? ऐसा ईश्वर, वैदिक या सनातनी ईश्वर ही हो सकता है जिसमे करुणा न हो। अल्लाह तो सबसे अधिक करुणा वाला है। रही बात पाप माफ होने की तो गंगा स्नान करके कौन पाप मुक्त होते है? तीर्थ पर जाकर किसके पाप क्षमा होते है? पिंड दान करके किसके पाप माफ करवाये जाते है? भंडारा खिला कर किसके पापों का प्राश्चित होता है?

इस्लाम कहता है कि जिसका किसी ने ज़रा भी हक़ मारा या अहित किया या नुकसान पहुंचाया है, उसका बदला या दंड वह स्वयं लेगा या माफ करेगा मरने के बाद। यही असली न्याय है। दिल से माफी सच्ची मांगने पर अल्लाह सिर्फ वही पाप माफ करता है जो उसके अपनी उपासना और अस्तित्व से संबंधित है। न कि मनुष्य के मनुष्य से संबंधित। 

५) ईश्वर कहता है, "मनुष्य बनों" मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् - ऋग्वेद 10.53.6. जबकि अल्लाह कहता है, मुसलमान बनों

उत्त्तर:  जिनसे कहा गया कि मनुष्य बनो, तो पहले क्या मनुष्य नहीं थे या मनुष्य से हीन थे? उपरोत्त मंत्र आगे ये कहता है कि मनुष्य बन कर उस ईश्वर की उपासना करो। अर्थात जो उस ईश्वर से अलग किसी भी अन्य की उपासन करता है वो मनुष्य नही है। परन्तु आज तो लगभग सभी हिन्दू भाई उस एक ईश्वर को छोड़ कर हर किसी की उपासना कर रहा है। तो वेद अनुसार क्या वो मनुष्य हुए?

सम्पूर्ण जीवन चरित्र और ऋग्वेदिक भाष्य भूमिका में स्वामी दयानन्द कहते है कि जो एक ईश्ववर के सिवा किसी दूसरे को पूजे वो पशु है और नरकगामी है।

इंसानियत और मुस्लमानियत एक ही सिक्के दो पहलू है। बिना इंसानियत के मुसलमान नहीं हो सकते। मुसलामन का अर्थ होता है जिसका पूर्ण ईमान अल्लाह पर हो। न कि किसी ऐसी चीज़ पर जो स्वयं ईश्वर के अधीन है। अर्थात मुसलामन का अर्थ उस एक निराकार ईश्वर का आस्तिक बनना है, जिसे अल्लाह, God, यहोवा, परमेश्वर भी कहते है और अन्य भाषाओं में भी अलग अलग नामों से पुकारते है। सच्ची आस्तिकता के विस्तृत क्षेत्र में इंसानियत रहती है। इस्लाम तो ये कहता है कि तुम सब एक ही जोड़ें से पैदा किये गए इंसान हो पूरी दुनिया अल्लाह का परिवार है। 

शतपथ ब्राह्मण, मनुस्मृति और ऋग्वेदिक भाष्य भूमिका में बताया गया है कि जो असत्य का आचरण करे वो मनुष्य है और जो सत्य का आचरण करे वो देवता है। इस व्याख्या के अनुसार क्या मनुष्य बनने के लिए पहले असत्य व्यवहार करना पड़ेगा?

६) ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से तीनों कालों की बातों को जानता है। जबकि अल्लाह अल्पज्ञ है, उसे पता ही नहीं था की शैतान उसकी आज्ञा पालन नहीं करेगा अन्यथा शैतान को पैदा क्यों करता?

उत्तर:  अल्लाह सर्वज्ञ है, उसे पता है कि कौन क्या करेगा।  पर उसने सबको उसके कर्म करने की छूट दी है महाप्रलय तक ताकि सब अपने कर्म लाइव देख कर उसके सामने पहुंचे और ये न कह सके कि मैंने तो ऐसे कर्म किए ही नहीं।  शैतान कोई व्यक्ति विशेष आदि नहीं बल्कि विशेष मानसिकता या विशेष सोच वाले का नाम है जो इंसान भी हो सकते है। यानी ऐसी मानसिकता जो नेकी की उलट है।

क्या ईश्वर को नहीं पता था कि 'कली' (सनातन धर्म में शैतान जाइए एक अस्तित्व) उसकी आज्ञा नहीं मानेगा अन्यथा उसे जन्म ही क्यों दिया जो मनुष्य को धरती पर भटकाता व बहकाता फिरता है? देवी, देवताओं, भगवानों से लाखों सालों से असुरों, राक्षसों, दैत्यों, दानवों, पिशाचों, चांडालों आदि का युद्ध चल रहा है, क्या ईश्वर, भगवान को नहीं पता था कि ये उसके आदशों के विरुद्ध युध्द करेंगे तो इन्हें क्यों बनाया? यंहा तक कि देवी देवताओं की आपस में भी टशन चलती रहती है। तो इन्हें भी क्यो बनाया? क्या पता नहीं था ये देवासुर संग्राम, घमासान करेंगे? 

७) ईश्वर निराकार होने से शरीर रहित है।  जबकि अल्लाह शरीर वाला है और एक आँख से देखता है।

उत्तर:  वैदिक ईश्वर निराकर है तो कण कण में कैसे है? निराकर है तो अवतार बनके आकार में कैसे आता है? और मृत्यु के बाद शरीर यंही क्यों छोड़ जाता है? अथर्वेद (4:1:6) कहता है कि जगत उत्पत्ति से पहके ईश्वर सोया हुआ सा था। प्रश्न उठता है कि बेड पर या सोफा पर?  इसके उलट अल्लाह निराकर है जिसको न हाथ, पांव, नाक, आदि कुछ भी नहीं है बल्कि उसका जैसा कुछ भी नहीं।

८) ईश्वर ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया हैं। ''अल्लाह 'काफिर' लोगों (गैर-मुस्लिमो ) को मार्ग नहीं दिखाता''।

उत्तर:  ईश्वर ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सबके लिए दिया है तो वो कौन है जिन्होंने वर्षों तक इसको केवल एक जाति ने याद रखा, लिखने नहीं दिया, शुद्रो को इसको सुनने नही दिया, इसका  जाप भी नही करने दिया, किसी को संस्कृत तक नहीं सीखने दी? ऐसा करने वालो की जिह्वा खींचने और कानों में पिघला सीसा डालने का आदेश दिया? शुद्रो के ताड़न का आदेश क्यो? ईश्वर ने सबके लिए भेजा था तो 19वी सदी से पहले इसका अनुवाद अन्य भाषाओं में क्यों न हो पाया, दुनिया पढ़ तक न पायी, यंहा तक कि देख भी न पाई? जबकि क़ुरान पूरी दुनिया और और सभी लोगो के लिए आया है जो चाहे पढ़े, सीखें, अपनाए।

काफिर का मतलब गैर मुस्लिम नहीं बल्कि नास्तिक होता है और वो भी वो विशेष नास्तिक जिन्होंने क़ुरान के अवतरण के समय ईश्वर के एक होने का इनकार किया,  बार बार समझाए जाने के बाद भी। बल्कि वर्षो तक ईश्वर के एक मानने वालों को लूटा, सताया, मारा, हत्या की,अत्याचार किया, प्रताड़ित किया, ये जानते हुए की वो सज्जन लोग है। और इस पर भी बस न चला तो आस्तिकों के विरुद्ध हमेशा षड्यंत्र करते गए और कई बार युद्ध छेड़ दिया। जब ये हठधर्मी न माने तब ऐसे लोगो को कहा गया है कि ये लोग काफिर (उस समय के नास्तिक) हो गए, यानी ये नहीं सुधरेंगे इसलिए इनको अल्लाह मार्ग नही दिखाता। और इस्लाम सभी धर्म के मनुष्यो के लिये हे।

ईश्वर, भगवान राम को मार्ग दिखयेगा या रावण को, जवाब दो? अपने भक्तो को दिखयेगा या दृष्टो को? क्या अधर्मी, कपटीयों, पाखंडियों, ढोंगियों, अत्याचारियों, दमनकारियों को ईश्वर मार्ग दिखयेगा? ईश्वर असत्यवादी लोगो को मार्ग दिखता है या सत्यवादियों को?

९) ईश्वर कहता है, हे मनुष्यो ! मिलकर चलो, परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्ण विद्वान, ज्ञानीजन, सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं, वैसे ही तुम भी किया करो। जबकि कुरान का अल्लाह कहता है ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) उन 'काफिरों' (गैर-मुस्लिमो) से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और उन्हे चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।''.

उत्तर:  इस्लाम भी यही कहता है की साथ मिलकर रहो और साथ मिलकर खाओ और पियो (हदीस). और जैसा ऊपर बताया गया कि उस परमेश्वर के विरुद्ध हुए हथी निर्दयी दुश्मन नास्तिकों को काफ़िर कहा गया है, न कि गैर मुसलमानों को (जैसा कि ऊपर प्रशन्न में झूठ लिखा गया है)। और जब उनसे युद्ध हुआ तो तब ये कहा गया कि युध्द में उनसे सख्ती से लड़ो। ये युद्ध में दिए आदेश है। वरना युद्ध में क्या शत्रुओं को अतिथि मान कर आवभगत की जाती?

गीता में अर्जुन कहता है कि मैं अपने बड़ो, गुरुओ और भाइयो को कैसे मार सकता हूँ। तो श्री कृष्ण कहते है कि क्या तुम नपुंसक हो गए है, ये रणभूमि है, वह सब दुश्मन है। कोई भी हो सामने, उन्हें मार डालो, हथियार उठाओ अर्जुन, चाहे वीरगती ही हो। अब बताओ ये कैसे आदेश है? युद्ध के है न। बाकी अथर्वेद (12:5:62/7) क्या कहता है ऐसे लोगो को वो भी देख लो: दुश्मन-वेद निंदक को काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भस्म कर दे। (वेदों में ऐसे बहुत से मंत्र है, मांगोगे तो दे देंगे)

वेदों में अनार्यो, मलेच्छ, दस्युओं, ब्रह्मद्विष, वेद निंदकों आदि (ये वैदिक काल के नास्तिक थे) के साथ क्या क्या उत्पीड़न आदि करने के आदेश है, पढ़ लीजिये (नहीं मिले तो मांग लेना)

१०) ऋग्वेद में ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब समान हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो। जबकि ''हे 'ईमान' लाने वालो (केवल एक अल्लाह को मानने वालो) 'मुश्रिक' (मूर्तिपूजक) नापाक (अपवित्र) हैं।'' (१०.९.२८ पृ. ३७१) (कुरान 9:28) कहता है।

उत्तर:  इस्लाम कहता है कि कोई किसी से बड़ा छोटा नहीं है। हज और नमाज़ भाईचारे की मिसाल है जिन्हें सब एक साथ मिलकर अदा करते है। नापाक उन्हें कहा गया है जो एक निराकार ईश्वर को ईश्वर न मान कर, अन्यो को ईश्वर मानने लगे या उनकी मूर्ति बनाके उन्हें पूजने लगे जबकि उनका मन इस बात की स्वीकृति दे चुका हो कि परमेश्वर है तो केवल एक ही।

प्रश्न करने वाला खुद पहले प्रश्न में कह रहा है कि ईश्वर निराकर है तो फिर ये सवाल ही उसके दोहरे चरित्र का प्रमाण है कि निराकर की मूर्ति कैसे हो सकती है? 
और उसकी मूर्ति नही है तो उसकी मूर्ति को बनाया या पूजा भी कैसे जा सकता है? अगर फिर भी ऐसा कोई करता है तो उसकी पूजा भी अशुद्ध और अपवित्र हुई या नहीं?

वेद के साथ साथ, मनुस्मृति (2:11) भी कहती है कि वेद न मानने वाले और नास्तिकों का बहिष्कार करो। वेद तो उन्हें मारने काटने के आदेश देता है। यंहा तक कि स्मृति शास्त्र तो शूद्रों को भी अपवित्र और हीन बताते है (संदर्भ चाहिए तो मांग लेना।  स्वामी विवेकानंद और डॉक्टर अम्बेडकर इस पर बहुत कुछ लीख कर गए है। इसलिए ही वंचित समुदाय मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन करते आये है।

११) क़ुरान का अल्लाह अज्ञानी है वे मुसलमानों का इम्तिहान लेता है तभी तो इब्रहीम से पुत्र की क़ुर्बानी माँगीं।  जबकि वेद का ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात मन की बात को भी जानता है उसे इम्तिहान लेने की अवशयकता नही।

उत्तर:  वैदिक ईश्वर परीक्षा नहीं ले रहा है तो नरक स्वर्ग, प्रलय आदि क्यों बनाया है। इस धरती पर जीवन क्यो चल रहा है। ईश्वर सर्वज्ञ है तो बिना जीवन दिए ही लोगो के कर्मो को जांच लेता! ऐसा क्यों न किया?

अल्लाह सर्वज्ञ है पर ये जीवन इसलिए दिया है कि हमें इसका स्वयं अनुभव हो, हम स्वयं जी कर देख ले, स्वयं अपने लिए साक्षी बन जाये कि हमने सच में जीवन जी कर देखा है और फला फला कर्म भी किए है।  वरना अल्लाह को तो पता है कि कौन, कब, क्या, कैसे कर्म करेगा। ये सिस्टम हमारी संतुष्टि के लिए है।

रही बात क़ुरबानी की तो ईश्वर क्यों भक्तो से बलि मांग कर परीक्षा लेता है? बलि शब्द संस्कृत का ही है जिसका अर्थ जीवहत्या है। अश्मेधयज्ञ में मेध का अर्थ ही बलि है।  नरबलि हिन्दू धर्म की ही कुप्रथा थी। काली मां और इष्टदेवों को प्रसन्न करने के लिए ही बलि दी जाती है। ग्रंथो से पता लगता है कि यज्ञों में बलि का प्रावधान था। बलि और मांसाहार का उल्लेख मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और वेदों आदि में मिलता है, सनातन धर्म में मांसहार तब बंद हुआ जब बौद्ध और जैन धर्म ने अहिंसा का प्रचार प्रसार शुरू किया। स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट कहा है कि वैदिक काल मे मांसहार प्रचलन में था बल्कि बीफ भी खाया जाता था। यही बात बाबा अम्बेडकर भी लिख कर गए है की मांसहार वैदिक काल और ब्राह्मणों का अभिन्न अंग था। भारत, नेपाल में ही सेकड़ो मंदिरों में बलि का प्रचलन है। पिछड़ी जातियों के देवी आदि के मंन्दिरों में बलि प्रथा का प्रचलन है।  बंगाल में दुर्गा पूजा में मांस ही प्रसाद होता है। नेपाल में हर वर्ष विश्व का सबसे बड़ा पशुबलि त्योहार मनाया जाता है। आज भी बंगाली, पहाड़ी और दक्षिण भारत क्षेत्र के ब्राहमण भी मांसाहारी होते है। (प्रमाण चाहिए तो मिल जायँगे)। 

वैसे शिवजी ने अपने पुत्र गणेश का सिर क्यों काटा था? परशुराम ने अपनी मां का गला क्यों काटा था?

१२) अल्लाह जीवों के और काफ़िरों के प्राण लेकर खुश होता है।  लेकिन वेद का ईश्वर मानव मात्र व जीवों पर सेवा, भलाई, दया करने से खुश होता है।

उत्तर:  ये प्रश्न भी झूट हैं की अल्लाह किसी के प्राण लेकर खुश होता। अल्लाह, वेद की तरह चीरने फाड़ने का आदश नहीं देता। बल्कि जीवो के साथ भलाई के आदेश देता है। जैसे ज़्यादा बोझा न डालों, चारा अच्छा दो, उन्हें पीटो नहीं आदि आदि। पर अल्लाह ने हर प्राणी को एक उद्देश्य के तहत बनाया है इसलिए उसने उसी के तहत कुछ आदेश भी दिए जिसके अंतर्गत मांसाहार के लिए जीव हत्या की अनुमति है। अगर ये अनुमति गलत है तो सबसे पहले सनातनी ग्रंथों को मानना बंद कर दो क्योंकि उनमें भी मांसाहार और जीवहत्या का उल्लेख है। और जीवहत्या तो दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में करता है। तभी वेस्ट में अब लोग वेजिटेरिअन नहीं बल्कि वेगन बनना चाहते है।

इस तरह के प्रश्न बना कर लोग अपनी नफरत और भड़ास बाहर निकालते है,बिना अपने धर्मग्रंथ देखे या गिरेबान में झांके। इसके लिए ये लोग अपने दोहरेपन, पक्षपाती चारित्र, पूर्वाग्रह और झूठ का सहारा लेते है। एक उंगली उठाने से चार अपनी तरफ उठती है।

Sunday 17 May 2020

आर्यो,हिन्दुओ का कुरान की आयतो पर आपत्ति का जवाब

।।काफ़िर और नास्तिक।।

"सत्यार्थप्रकाश" के कर्त्ता द्वारा हिन्दू समाज और अन्य धर्म में यह भ्रम और भ्रांति फैलाई गई कि कुरआन में काफिरों के लिए आक्रमक और अपमानजनक घोषणाएं हैं। देश का एक विशिष्ट वर्ग कुरआन की कुछ आयतों (मंत्रों) को लेकर इसी प्रकार की आपत्ति करता है और कहता है कि इस्लाम न केवल अन्य धर्मों का अनादर करता है बल्कि जुल्म और अत्यचार को भी प्रोत्साहित करता है। कुरआन की कुछ आयतों को यहां उद्घृत किया जा रहा है जिन पर लोगों को आपत्ति है और जिन्हें "सत्यार्थप्रकाश" में अति अशिष्ट भाषा में आरोपित किया गया है।
1. "काफ़िरों को अपना मित्र न बनाओ।" (3:28)
2. "मुशरिक तो बस अपवित्र ही हैं।" (9:28)
3. "मुशरिक (काफ़िर) को जहाँ पाओ क़त्ल करो।" (9:5)
4. "जब काफ़िरों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम इनकी गर्दनें मारना है।" (47:4) आदि...


उपरोक्त आयतों को समझने के लिए हमें न केवल उस पृष्ठभूमि और उन परिस्थितियों को समझना पड़ेगा जिनमें ये आयतें अवतरित हुई हैं बल्कि हमें इस्लाम के उद्देश्य और मिशन को भी समझना होगा। केवल आयतें (मंत्रों को) पढ़कर और सुनकर आरोप लगाना बुद्धिमात्ता नहीं है। इस्लाम शान्ति, एकता और समानता का आवाहक है। वह दुनिया में कुफ्र (नास्तिकता) को सबसे बड़ा जुल्म, बिगाड़ और फ़साद का कारण समझता है, इसलिए इसे मिटाने और समूल नष्ट करने को प्राथमिकता देता है। यही इस्लाम का मूल उद्देश्य और मिशन है।
इस असीम और अद्भुत ब्रह्मांड का सृजन करने वाली सत्ता सिर्फ एक है, वही एक मात्र व्यवस्थापक, नियामक, न्यायध्यक्ष और उपास्यदेव है। उसको छोड़कर किसी अन्य शक्ति, सत्ता अथवा देवी-देवता को इष्ट और न्यायध्यक्ष समझना कुफ़्र (नास्तिकता) है। मानव जीवन से जुड़ा यह एक ऐसा स्तय है कि इससे कोई अक़्ल का अंधा व्यक्ति ही इंकार कर सकता है और जो इस सत्य का इनकार करता है वह व्यक्ति अथवा समूह यक़ीनन नास्तिक (काफ़िर) है। कोई व्यक्ति या समुदाय अगर अपने पैदा करने वाले का ही इनकार के दे, इससे बड़ा गुनाह (पाप) और क्या हो सकता है ? इस्लाम मुख्यतः इसी स्तय का प्रतिपादन करता है। इसी स्तय का स्थापन ही इस्लाम का मुख्य उद्देश्य और मिशन है। वेद भी इसी स्तय का प्रतिपादन करती हैं।
इस्लाम की दृष्टि में उक्त स्तय का इनकार और विरोध एक नाकाबिल-ए-माफ़ी गुनाह (पाप) है। मृत्योपरांत इस गुनाह-ए-अज़ीम (बड़ी पाप) का अंजाम अति भयानक हैं। मानव जाति के अंतिम चरण में सम्पूर्ण मानवता को इस भयानक अंजाम से बचाने के लिए यह उत्तरदायित्व इस्लाम के अंतिम सन्देशवाहक हज़रत मोहम्मद (सल्ल०) पर डाला गया। आपने (सल्ल०) इस्लाम की शिक्षा और सिद्धांतों को अत्यंत शान्तिमय तरीके से लोगों तक पहुंचाना प्रारम्भ कर दिया। आपका संबन्ध अरब क़ौम (समुदाय) से था जो एक बर्बर व असभ्य क़ौम थी। आपके सन्देश को लोगों ने सुना। 
सन्देश को सुनकर कुछ लोग आपके करीब आते गए। कुछ लोग आपके दुश्मन बन गए। आपके दुश्मनों ने आप व आपके साथियों को परेशान करना, अपमानित करना, मज़ाक उड़ाना, सख़्त बर्ताव, ईर्ष्या, द्वेष, गाली-गलौच करना प्रारम्भ कर दिया।
आपने फिर भी शान्तिमय तरीके से अपना सन्देश सुनाने और फैलाने का क्रम जारी रखा। आपके समकालीन लोगों ने आपके मिशन के बढ़ते प्रचार और प्रसार को देखकर आप व आपके साथियों को सताना व यातनाएं देनी प्रारम्भ कर दी। आपका बहिष्कार किया गया। भूखा-प्यासा रहने पर विवश किया गया। आप ताइफ़ (शहर) चले गए ताकि वहां के लोगों को अपना सन्देश सुनाकर अपना समर्थक बनाए, मगर वहाँ भी आपके साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया। 
पत्थर मार-मार कर आपको लहूलुहान कर दिया। आप फिर ताइफ़ (शहर) से मक्का (शहर) वापस आ गए। इस्लाम विरोधियों ने आपकी हत्या करने की योजनाएं बनाई। एक बार यहूदियों में से एक गिरोह ने आप व आपके ख़ास-ख़ास साथियों के खिलाफ एक गुप्त षडयन्त्र रचा कि आपको खाने की दावत पर बुलाकर अचानक आप पर जानलेवा हमला कर देंगे, मगर ठीक समय पर अल्लाह की कृपा से आपको इस षडयन्त्र का पता चल गया और आप दावत पर नहीं गए। एक बार कुरैशियों (समुदाय वालों) ने आपको मार डालने की साज़िश के तहत रात के समय आपके घर को चारों तरफ से घेर लिया मगर अल्लाह की कृपा से इस्लाम विरोधियों की यह साजिश भी नाकाम हो गई।
आप मक्का छोड़कर मदीना (शहर) चले गए, मगर इस्लाम के कट्टर विरोधियों ने वहां भी आपका पीछा नहीं छोड़ा। जो लोग आपकी शिक्षाओं को समझकर आपके साथ आना चाहते थे, उनको रोकने के लिए उनपर असहनीय जुल्मों-सितम ढाए गए। 
आपके ख़िलाफ भ्रम और भ्रांतियां फैलाई गई। जो समझौते और सिंधियां की गई, उनकी शर्तों को तोड़ा गया। आपको धोखा देने के लिए मुशरिकों (बहुदेववादीयों) और मुनाफिकों (कपटाचारियों/धोखेबाज़ों) ने मस्जिद के नाम से एक षडयन्त्र का अड्डा बनाया। आपको काबा की ज़ियारत से रोका गया, मगर फिर भी आपकी तरफ से कोई विरोधात्मक कार्यवाही नहीं कि गई।
आरम्भिक काल में इस्लाम स्वीकार करने वालों के ऐतिहासिक किस्से पढ़ने पर पता चलता है कि उन बेकसूर स्त्रियों व पुरुषों पर अमानुषिक जुल्मों-सितम को सुनकर कौन-सा दिल होगा जो न रो पड़ेगा। धधकते कोयलों, तपती बालू पर नंगे कर लिटाना, शरीर के अंगों को काट-काट कर निर्ममता व निर्दयता से हत्या करना, जुल्मों-सितम करने में अपने सगे-संबंधियों की परवाह न करना, भ्रम व भ्रांतियां फैलाकर लोगों को सही रास्ते की तरफ आने से रोकना आदि बातों की जब अति हो गई तब विषम व विकट परिस्थितियों में विवशता वश प्रतिशोधात्मक नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिए उन षड्यंत्रकारियों के साथ अल्लाह की तरफ से लड़ाई का आदेश अवतरित हुआ। 

कुरआन के कुछ अंश यहां उद्धृत किए जाते हैं-

1. "बहुत बुरी करतूत थी जो ये करते रहे। किसी ईमान वाले के मामले में न ये किसी नाते-रिश्ते की परवाह करते हैं और न किसी समझौते के दायित्व की, और ज़्यादती सदैव इन्हीं की ओर से हुई है।" (9:10)
2. "यदि प्रतिज्ञा के पश्चात ये फिर अपनी क़समों को तोड़ डालें और तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दें तो अधर्म के ध्वजावाहकों से युद्ध करो क्योंकि उनकी क़समों का कोई विश्वास नहीं।" (9:12)
3. "क्या तुम न लड़ोगे ऐसे लोगों से जो अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हैं और उन्होंने रसूल को देश से निकाल देने का निश्चय किया था, ज़्यादती का आरम्भ करने वाले वही थे।" (9-13)

यहां यह विचारणीय है कि क्या तार्किर्कता और बौद्धिकता का मुकाबला गाली-गलौच, पत्थर और तलवार से करने को न्यायसंगत कहा जा सकता है ? क्या किसी व्यक्ति अथवा गिरोह को महज इस कारण जुल्मों-सितम का निशाना बनाना कि वह हक (स्तय) को जानकर उसे क़बूल कर रहा है, तर्कसंगत कहा जा सकता है ? क्या किसी व्यक्ति अथवा गिरोह का विरोध इस वजह से करना कि वह लोगों को बुराई से रोकता है, भलाई की तरफ बुलाता है, बुद्धि सम्मत कहा जा सकता है ?
आप (सल्ल०) की लगभग 23 वर्ष की नबूवत की अवधि में मात्र 1018 लोग मारे गए जिनमें 259 आप के पक्ष के व 759 विरोधी पक्ष के थे (जंगो में)। जबकि विश्व में जितनी बड़ी क्रांतियां हुई हैं, उनमें मरने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके मुकाबले इस्लामी क्रांति को रक्तहीन क्रांति ही कहा जाएगा। 
यह भी विचारणीय है कि जिस व्यक्ति ने अविद्यान्धकार में डूबी ज़ालिम व बर्बर क़ौम को समता, न्याय, एकता, नैतिकता व शिष्टता का पाठ पढ़ाया हो, उसकी उद्दंडता, कुचरित्रता, अस्वच्छता को समाप्त कर एक उच्च कोटि की सभ्यता विकसित की हो, उस व्यक्ति के मिशन पर ये आरोप कि वह अनुदार व असहिष्णु तत्ववाद का प्रतिनिधित्व करता है, यह एक दुराग्रह से ग्रसित का आरोप तो हो सकता है मगर जिन लोगों ने कुरआन व उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का गहनता, गंभीरता व निष्पक्षता से अध्ययन किया है वे इस्लाम पर इतना घिनोना आरोप कभी न लगाएंगे। 
कुरआन का निष्कपटता के साथ अध्ययन व चिंतन किए बिना उसकी शिक्षाओं पर आरोप-प्रत्यारोप करना न केवल सांप्रदायिक विद्वेष उतपन्न करेगा, बल्कि नैतिक अपराध भी होगा। इस्लाम का स्वभाव सुधारात्मक व प्रचारत्मक है प्रतिशोधात्मक व धृणात्मक नहीं है। इस्लाम प्रेम व भाईचारे की बुनियादों पर जीवन का निर्माण करता है मगर शोषित व पीड़ित की सहायता व अन्याय व असत्य की उद्दंडता के लिए तलवार (हत्यार) उठाने को जायज़ ही नहीं अनिवार्य समझता है। 

कुरआन की निम्नलिखित आयतों पर भी एक दृष्टि डालिए-
1. "बुराई का बदला भलाई से दो, तुम देखोगे कि जिसे तुम से दुश्मनी थी, वह भी तुम्हारा गहरा दोस्त हो जाएगा।" (41:34)
2. "किसी जीव की नाहक़ हत्या न करो।" (6:151)
3. "किसी व्यक्ति को किसी खून का बदला लेने या धरती में फ़साद के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानों उसने सारे ही मनुष्यों की हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया उसने मानों सारे मनुष्यों को जीवनदान दिया।" (5:32) 
4. "किसी संप्रदाय विशेष की शत्रुता तुम्हारे लिए इस बात का कारण न बन जाए कि तुम न्याय न करो।" (5:8) 
5. "जो तुम पर जुल्म करें तुम उसे माफ कर दो।" (हदीस) 

उपर्युक्त तथ्यों और विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुरआन में जिन लोगों के लिए काफ़िर, ज़ालिम, मुशरिक, मुनाफ़िक़ आदि शब्द प्रयोग किए हैं, ये अत्यंत घृणित प्रवृत्ति के लोग थे, जिनके दिलों में कपट व नियतों में खोट था। जिन्होंने अपने आचरण से ये बात साबित कर दी थी कि वे वास्तव में झूठी मान बड़ाई की खातिर स्तय, सज्जनता व तर्क का मुकाबला झूठ, फरेब व तलवार से कर रहे थे। घिनोने षडयन्त्र रच-रच कर इस्लाम के अनुयायियों पर जुल्मों-ज्यादती कर रहे थे। इन्हें न रिश्तों-नातों का कोई लिहाज़ था, न अपनी क़समों की कोई परवाह। ये शब्द किसी जाति, रंग व नस्ल के लिए नहीं बोले गए हैं। 
ये सभी शब्द गुणवाचक हैं जो आपके समकालीन कुछ खास निकृष्ट प्रवृत्ति के लोगों के लिए प्रयोग किए गए हैं। 
निःसन्देह विश्व में कुछ मुस्लिम तत्व आतंक की कार्यवाही में लिप्त हैं। एक खास मानसिकता के वे तत्व जिहाद के नाम पे निर्दोष लोगों का खून बहा रहे हैं। कहने को वे मुस्लिम हैं, मगर वास्तव में वे इस्लाम के सच्चे अनुयायी नहीं है। 
इस्लाम तो सौहार्द और सहिष्णुता का प्रतिनिधित्व करता है, मगर तथाकथित तत्वों ने इस्लाम की उदारवादी छवि को अत्यंत नुकसान पहुंचाया है। इस्लाम जिस सहिष्णुता की मांग करता है, आज उसमें अत्यंत गिरावट देखने में आ रही है जो अत्यंत ही दुःखद और दुर्भग्यपूर्ण हे। विश्व का जनमानस इस्लाम और मुस्लिम समुदाय को जिस धृणित दृष्टि से देख रहा है इसके लिए इस्लाम की शिक्षा नहीं बालको मुस्लिम समुदाय दोषी और उत्तरदायी है।
अब जहां तक हिन्दू समुदाय का सवाल है, विराट हिन्दू समुदाय में उन लोगों की संख्या नगण्य है, जो वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मानते हैं। 
यहां यह विचारिणी है कि यदि सम्पूर्ण समाज वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मान ले तो फिर उनके लिए रामायण और गीता व्यर्थ और अस्वीकार्य हो जाएगी, क्योंकि वेदों और रामायण व गीता की धारणाएं एक दूसरे के विपरीत और विरोधी हैं। आर्यसमाजी धारा के लोग जो वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मानते हैं, उनमें उन लोगों की संख्या नगण्य है, जिन्हें वेदों का समुचित ज्ञान है। दयानंदीय आस्था धारा के लोगों ने चूंकि "सत्यार्थ प्रकाश" को वेदों की कुंजी मान लिया है, इसलिए वे वेदों के मूल को पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझते। विडंबना तो यह है कि उन्हें वेदों का तो क्या, "सत्यार्थ प्रकाश" का भी समुचित ज्ञान नहीं है। 
वेद और मनुस्मृति में भी काफ़िर के समानार्थी शब्द के रूप में नास्तिक, म्लेच्छ, दस्यु आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। 
जो आक्रामक घोषणाएं कुरआन में काफ़िरों के लिए की गई हैं, वैसी ही घोषणाएं वेद और मनुस्मृति में वेद-निंदकों और नास्तिकों के लिए की गई हैं। कहीं-कहीं तो ऐसी धोषणाएँ भी की गई हैं, जिन्हें किसी भी आधार पर न्यायोचित और तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता।
आइए कुछ उदहारण देखते हैं-
"सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी जी स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-

"म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।" (मनुस्मृति 10:45)
"म्लेच्छ देश स्तवतः परः।" (मनुस्मृति 2:23)"भावार्थ: जो आर्यवत से भिन्न देश है वे दस्यु (दुष्ट) और म्लेच्छ देश कहलाते है।"-पृष्ठ 264:8 समुल्लास। 

जहां कुरआन में काफ़िर, मुशरिक, ज़ालिम आदि शब्द गुणवाचक के तौर पर आया हैं वही उक्त में दस्यु और म्लेच्छ शब्दों को स्थानवाचक के रूप में प्रयोग किया गया है अर्थात एक देश विशेष के अलावा अन्य देश के सभी मनुष्य चाहे वो सत्कर्मी और सदाचारी ही क्यों न हों, दस्यु और म्लेच्छ हैं। क्या उक्त धोषणा न्यायसंगत है ? आस्था और सद्गुण के स्थान पर भौगोलिक क्षेत्र और जन्मभूमि को अच्छे-बुरे का आधार बनाना कौन-सी ईश्वरीय व्यवस्था है ? 
आगे लिखा है- 
"हम सृष्टि विषय में कह आए हैं कि "आर्य" नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु हैं।"-पृष्ठ 324:11समुल्लास।

"जैसे आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही में भी मानता हूं।"-स्वमन्त०29।

अब जैसा कि उपरोक्त से स्पष्ट है कि सभी अनार्य चाहे वो उत्तम गुणों से युक्त हों "दुष्ट" हैं। 
दुष्टों के लिए मनुस्मृति में क्या सजा लिखी है, उसे भी देखिए।

"नाततापिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युं ऋच्छति।।" 
भावार्थ: दुष्ट पुरूषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता चाहे प्रसिद्ध (सबके सामने) मारे चाहे अप्रसिद्ध (एकान्त में) क्यों कि क्रोधी को क्रोध से मारना जानो क्रोध से क्रोध की लड़ाई है ।(मनुस्मृति 8:351)

"योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः ।स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः"
भावार्थ: जो तर्कशास्त्र के आश्रय से वेद और धर्मशास्त्र का अपमान करता अर्थात् वेद से विरूद्ध स्वार्थ का आचरण करता है, श्रेष्ठ पुरूषों को योग्य है कि उसको अपनी मण्डली से निकाल के बाहर कर देवें क्यों कि वह वेदनिन्दक होने से नास्तिक है । (मनुस्मृति 2:11)

"उपरुध्यारिं आसीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत् ।दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्।।"
भावार्थ: किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेरकर रोक रखे और इसके राज्य को पीडित कर शत्रु के चारा, अन्न, जल और इन्धन को नष्ट दूषित कर दे। (मनुस्मृति 7:195)

अथर्वेद 12:5:61 भावार्थ "वेद विरोधी दुराचारी पुरुष को न्याय व्यवस्था से जला कर भस्म कर डाले।"

अथर्वेद 12:5:62 भावार्थ "तू वेद निंदक को काट डाल, चिर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भस्म कर दें।

ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर "दस्यु" शब्द का प्रयोग हुआ है वेद विद्वानों ने दस्यु शब्द का अर्थ अनार्य, दुष्ट, शत्रु, प्रतिद्वंद्धि और यज्ञादि न करने वाले पतित लोग लिया है। ऋग्वेद में अनेक ऐसे मंत्र हैं जिनमे दस्युओं का नाश करने और मारने के लिए प्रार्थना की गई है।

ऋग्वेद 1:100:18 भावार्थ: "हे पुरुहूत, बहुत बार बुलाए गए इंद्र, अपने स्वभावनुसार दस्युओं और शिभ्युओं को पृथ्वी पर पटक कर वज्र द्वारा कुचल डालों।"
ऋग्वेद 10:38:3 भावार्थ: "हे विद्वान वा राजन! यदि उत्तम कर्म रहित दस्यु कर्मा मनुष्य! अथवा बलशाली मनुष्य और राक्षसी वृत्ति वाला मनुष्य हमें युद्ध के लिए ललकारे तो ये सभी शत्रु हमारे द्वारा परास्त होवें। आपके सहाय से रण में हम उन्हें मार भगायें।"

ऋग्वेद 10:22:8 भावार्थ: "हे काम आदि शत्रुओं का नाश करने वाले भगवन! जो उत्तम कार्यों को नहीं करने वाले, वेद विहित कर्मों के क्षय करने वाले, राक्षसी प्रवृत्ति के मनुष्य आप हन्ता होकर उनको विनष्ट करें।"

ऋग्वेद 9:41:2 भावार्थ "वेद नियमों का भंग करनेवाले नाशक आसुरी भाव को कुचलनेवाले बनते हैं।"

ऋग्वेद 10:28:8 भावार्थ: "शक्तिशाली लोग आगे बढ़े, हथियारों को धारण करें, जंगलों को काटते हुए और रास्ते में नदी पड़े तो उसके वेग को रोकते हुए पानी के वेग का अनुसरण करते हुए शत्रु सैन्य को दुग्ध करें।"

सत्यार्थ प्रकाश के दशम समुल्लास में स्वामी जी लिखते हैं- "कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी, कपटी, छली, आदि दुष्ट मनुष्यों का संग न करें।"पृष्ठ 310:10समुल्लास।

अगर कोई व्यक्ति उक्त विषय वस्तु को पढ़कर केवल बाह्य  शब्दों और अर्थों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल ले कि इसमें तो जैन, बौद्ध, सिख, यहूदी, ईसाई, मुसलमान, आदि विधर्मियों के लिए आक्रामक और अपमानजनक घोषणाएं है तो क्या इसे न्यायसंगत माना जाएगा ?
सन्दर्भ, पृष्टभूमि और परिस्थितियों से अनभिज्ञ, बिना किसी विवेक, अध्ययन और अन्वेषण के केवल शब्दों और वाक्यों के बाह्य अर्थों को आधार बनाकर एक तरफा और मनोनुकूल अर्थ निरुपूर्ण करना बौद्धिक और तार्किक जीवन की नितांत दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद स्थिति है। 
यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है जब आरोपों का विषय किसी समुदाय की आस्थाओं से जुड़ा हो। आरोपों में अगर दंभ और दुराग्रह हो तब तो स्थिति अत्यंत ही गंभीर और भयावह हो जाती हैं।

ऐसे आपत्तिकर्ताओं के लिए सत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने लिखा है- "बहुत से हठी, दुराग्रह मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते है,विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के। आग्रह से उनकी बुद्धि अंधकार में फंस कर नष्ट हो जाती है।" (भूमिका) 

कुछ ऐसा ही व्यवहार कुरआन के साथ कथित लेखकों ने किया है स्वामी जी जिनमे आप भी गिनती में आते है और आलोचकों द्वारा भी किया गया है। कुरआन की मंत्रो (आयतों) की जो आलोचना विरोधी मत वालों के द्वारा की गई है उसमें न विवेक नज़र आता है और न कहीं गंभीरता नज़र आती है। उसमें केवल आग्रह और दुराग्रह है जो विवेकपूर्ण जीवन के लिए अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यह भी बौद्धिक जीवन की एक विडंबना ही है कि जो आरोप खुद हम पर बनते हैं वही आरोप हम दूसरों पर लगाए।
।।धन्यवाद।।
-Shoaib Pathan