गौतम बुद्ध का जन्म एक क्षत्रिय परिवार में
563 ई0पू0 लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था।
लुम्बिनी कपिलवस्तु के पड़ोस में है। इनके बचपन
का नाम सिद्धार्थ था।
सिद्धार्थ श्रेष्ठतर जीवन
मूल्यों की तलाश में 29 वर्ष की आयु में घर से
निकल गए। 6 वर्ष तक सच्चाई की तलाश में
भटकते हुए एक दिन उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ
और वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए।
गौतम
बुद्ध के बाद भारतीय चिंतन में एक तूफ़ान-सा आ
गया था, क्योंकि गौतम बुद्ध का सीधा टकराव
वैदिक ब्राह्मणों से था।
वैदिक ब्राह्मण यज्ञ को प्रथम और उत्तम
वैदिक संस्कार समझते थे। यह आर्यों का मुख्य
धार्मिक कृत्य था।
पशु बलि यज्ञ का मुख्य अंग
थी। पशु बलि को बहुत ही पुण्य का कर्तव्य
समझा जाता था। गौतम बुद्ध ने जब देखा कि
आर्य लोग यज्ञ में निरीह पशुओं की बलि चढ़ाते
हैं, तो यह देखकर उनका हृदय विद्रोह से भर
उठा। आर्य धर्म के विरूद्ध उठने वाली क्रांति का
प्रमुख कारण वैदिक पुरोहितवाद और हिंसा पूर्ण
कर्मकांड ही था।
ईसा से करीब 500 वर्ष पहले गौतम बुद्ध ने
वैदिक धर्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया था
वह यह था कि,
‘‘पशु बलि का पुण्य कार्य और पापों के
प्रायश्चित से क्या संबंध ? पशु बलि
धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध
है ?’’
यह एक विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध के करीब
2350 वर्ष बाद आर्य समाज के संस्थापक, वेदों
के प्रकांड पंडित स्वामी दयानंद सरस्वती ने
इस्लाम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया है वह
यह है कि
‘‘यदि अल्लाह प्राणी मात्र के लिए दया
रखता है तो पशु बलि का विधान क्यों
कर धर्म-सम्मत हो सकता है ?
पशु
बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व
अपराध है।’’
कैसी अजीब विडंबना है कि जो सवाल गौतम बुद्ध
ने वैदिक ऋषियों से किया था, वही सवाल करीब
2350 वर्ष बाद एक वैदिक महर्षि मुसलमानों से
करता है। जो आरोप गौतम बुद्ध ने आर्य धर्म पर
लगाया था, वही आरोप कई ‘शताब्दियों बाद एक
आर्य विद्वान इस्लाम पर लगाता है।
धर्म का संपादन मनुष्य द्वारा नहीं होता। धर्म
सृष्टिकर्ता का विधान होता है। धर्म का मूल स्रोत
आदमी नहीं, यह अति प्राकृतिक सत्ता है। यह भी
विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध ने ईश्वर के
अस्तित्व का इंकार करके वैदिक धर्म को आरोपित
किया था, मगर स्वामी दयानंद सरस्वती ने ईश्वर
के अस्तित्व का इकरार करके इस्लाम को आरोपित
किया है।
प्राचीन भारतीय समाज में पशु बलि के साथ-साथ
नर बलि की भी एक सामान्य प्रक्रिया थी।
यज्ञ-
याग का समर्थन करने वाले वैदिक ग्रंथ इस बात
के साक्षी हैं कि न केवल पशु बलि बल्कि नर बलि
की प्रथा भी एक ठोस इतिहास का परिच्छेद है।
यज्ञों में आदमियों, घोड़ों, बैलों, मेंढ़ों और
बकरियों की बलि दी जाती थी।
रामधारी सिंह
दिनकर ने अपनी मुख्य पुस्तक ‘‘संस्कृति के चार
अध्याय’’ में लिखा है कि यज्ञ का सार पहले
मनुष्य में था, फिर वह अश्व में चला गया, फिर
गो में, फिर भेड़ में, फिर अजा में, इसके बाद यज्ञ
में प्रतीकात्मक रूप में नारियल-चावल, जौ आदि
का प्रयोग होने लगा। आज भी हिंदुओं के कुछ
संप्रदाय पशु बलि में विश्वास रखते हैं।
वेदों के बाद अगर हम रामायण काल की बात करें
तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि श्री
राम शिकार खेलते थे।
जब रावण द्वारा सीता का
हरण किया गया, उस समय श्री राम हिरन का
शिकार खेलने गए हुए थे। उक्त तथ्य के साथ इस
तथ्य में भी कोई विवाद नहीं है कि
श्रीमद्भागवतगीता के उपदेशक श्री कृष्ण की
मृत्यु शिकार खेलते हुए हुई थी। यहाँ यह सवाल
पैदा होता है कि क्या उक्त दोनों महापुरुष हिंसा की
परिभाषा नहीं जानते थे ?
क्या उनकी धारणाओं में
जीव हत्या जघन्य पाप व अपराध नहीं थी ? क्या
शिकार खेलना उनका मन बहलावा मात्र था ?
अगर हम उक्त सवाल पर विचार करते हुए यह
मान लें कि पशु बलि और मांस भक्षण का विधान
धर्मसम्मत नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर अत्यंत
दयालु और कृपालु है, तो फिर यहाँ यह सवाल भी
पैदा हो जाता है कि जानवर, पशु, पक्षी आदि जीव
हत्या और मांस भक्षण क्यों करते हैं।
अगर
अल्लाह की दयालुता का प्रमाण यही है कि वह
जीव हत्या और मांस भक्षण की इजाजत कभी
नहीं दे सकता तो फिर शेर, बगुला, चमगादड़,
छिपकली, मकड़ी, चींटी आदि जीवहत्या कर मांस
क्यों खाते हैं ? क्या शेर, चमगादड़ आदि ईश्वर
की रचना नहीं है ?
शेर को जंगल का राजा कहा जाता है, वह जानवरों
पर इतनी बेदर्दी और बेरहमी से हमला करता है कि
जानवर दहाड़ मारने लगता है।
मांसाहारी चमगादड़ों
की एक बस्ती में लगभग 2 करोड़ तक चमगादड़ें
होती हैं। अगर चमगादड़ की एक बस्ती के एक रात
के भोजन का अनुमान लगाये तो 2 करोड़ की एक
बस्ती एक रात में करीब 2500 कुंतल कीड़ों, कीटों
आदि को चट कर जाती हैं।
अगर इन कीड़ों, कीटों
की तादाद का अनुमान लगाया जाए तो यह तादाद
करीब 1000 करोड़ से अधिक होती है। यह तो
एक मामूली-सा उदाहरण मात्र है,
यह दुनिया बहुत
बड़ी है और इस जमीनी दुनिया से कहीं अधिक
विस्तृत और विशाल तो समुद्री दुनिया है जहाँ एक
जीव पूर्ण रूप से दूसरे जीव पर निर्भर है।
विश्व के मांस संबंधी आंकड़ों पर अगर हम एक
सरसरी नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि प्रतिदिन
8 करोड़ मुर्गियां, 22 लाख सुअर, 13 लाख भेड़-
बकरियां, 7 लाख गाय, करोड़ों मछलियां और अन्य
पशु-पक्षी मनुष्य का लुकमा बन जाते हैं। कई देश
तो ऐसे हैं जो पूर्ण रूप से मांस पर ही निर्भर हैं।
अब अगर मांस भक्षण को पाप व अपराध मान
लिया जाए तो न केवल मनुष्य का जीवन बल्कि
सृष्टि का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
जीव-
हत्या को पाप मानकर तो हम खेती-बाड़ी का काम
भी नहीं कर सकते, क्योंकि खेत जोतने और काटने
में तो बहुत अधिक जीव-हत्या होती है।
विज्ञान के अनुसार पशु-पक्षियों की भांति पेड़-
पौधों में भी जीवन Life है। अब जो लोग मांस
भक्षण को पाप समझते हैं, क्या उनको इतनी-सी
बात समझ में नहीं आती कि जब पेड़-पौधों में भी
जीवन है तो फिर उनका भक्षण जीव-हत्या क्यों
नहीं है? फिर मांस खाने और वनस्पति खाने में
अंतर ही क्या है ?
यहाँ अगर जीवन Life ; और
जीव Soul; में भेद न माना जाए तो फिर मनुष्य
भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों की श्रेणी में आ जाता
है। जीव केवल मनुष्य में है इसलिए ही वह अन्यों
से भिन्न और उत्तम है।
विज्ञान के अनुसार मनुष्य के एक बार के वीर्य
Male generation fluid स्राव
(Discharge) में 2 करोड़ ‘शुक्राणुओं
(Sperm) की हत्या होती है।
मनुष्य जीवन में
एक बार नहीं, बल्कि सैकड़ों बार वीर्य स्राव
करता है। फिर मनुष्य भी एक नहीं करोड़ों हैं। अब
अगर यह मान लिया जाए कि प्रत्येक ‘शुक्राणु
(Sperm) एक जीव है, तो इससे बड़ी तादाद में
जीव हत्या और कहां हो सकती है ?
करोड़ों-अरबों
जीव-हत्या करके एक बच्चा पैदा होता है। अब
क्या जीव-हत्या और ‘‘अहिंसा परमों धर्मः’’ की
धारणा तार्किक और विज्ञान सम्मत हो सकती
है।
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