Sunday 6 September 2015

औरंगजेब - एक बेहतरीन शासक था ..@

तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।। पुस्तक: ‘‘इतिहास के साथ यह अन्याय‘‘ लेखक: प्रो. बी. एन पाण्डेय, भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा, राज्यसभा के सदस्य, इलाहाबाद नगरपालिका के चेयरमैन एवं इतिहासकार --- जब में इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैन था (1948 ई. से 1953 ई. तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज़ दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन दस्तावेज़ों में शहंशाह औरंगज़ेब के फ़रमान भी थे। औरंगज़ेब ने इस मन्दिर को जागीर और नक़द अनुदान दिया था। मैंने सोचा कि ये फ़रमान जाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है कि औरंगज़ेब जो मन्दिरों को तोडने के लिए प्रसिद्ध है, वह एक मन्दिर को यह कह कर जागीर दे सकता हे यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखि़र औरंगज़ेब कैस बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़ जाली हैं, परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सर तेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा। वे अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज़ें उनके सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजे़ब के ये फ़रमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के जंगमबाडी शिव मन्दिर की फ़ाइल लाने को कहा। यह मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था। जंगमबाड़ी मन्दिर के महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमान थे, जिनमें मन्दिर को जागीर दी गई थी। इन दस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डाक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के पिभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के कुछ फ़रमान हों जिनमें उन मन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर, चित्रकूट के बालाजी मन्दिर, गौहाटी के उमानन्द मन्दिर, शत्रुन्जाई के जैन मन्दिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मन्दिरों एवं गुरूद्वारों से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें मुझे प्राप्त हुई। यह फ़रमान 1065 हि. से 1091 हि., अर्थात 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे। हालांकि हिन्दुओं और उनके मन्दिरों के प्रति औरंगज़ेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं, फिर भी इनसे यह प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें हज़ारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढ़ंग से खोजबीन की जाए तो मुझे विश्वास है कि और बहुत-से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगज़ेब का गै़र-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार का पता चलेगा। औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगज़ेब के विषय में ऐतिहासिक दृस्टि से अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश करने में व्यस्त हैं और काफ़ी बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर को साफ़ करने में अपना योगदान दे रहे हैं। औरंगज़ेब, जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारें में वे क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक कि ‘शिबली’ जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ाः तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।। औरंगज़ेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने-बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह फ़रमान बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवार से संबंधित है। 1905 ई. में इसे गोपी उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटि मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया था। एसे पहली बार ‘एसियाटिक- सोसाइटी’ बंगाल के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर औरंगज़ेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि इस फ़रमान का वास्तविक महत्व उनकी निगाहों से आझल रह जाता है। यह लिखित फ़रमान औरंगज़ेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि. (10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानिय अधिकारी के नाम भेजा था जो एक ब्राहम्ण की शिकायत के सिलसिले में जारी किया गया था। वह ब्राहमण एक मन्दिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर रहे थे। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘अबुल हसन को हमारी शाही उदारता का क़ायल रहते हुए यह जानना चाहिए कि हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य जन-कल्याण को बढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है। अपने पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मन्दिरों को तबाह और बर्बाद नहीं किया जाएँ, अलबत्ता नए मन्दिर न बनए जाएँ। हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आस-पास के हिन्दू नागरिकों और मन्दिरों के ब्राहम्णों-पुरोहितों को परेशान कर रहे हैं तथा उनके मामलों में दख़ल दे रहे हैं, जबकि ये प्राचीन मन्दिर उन्हीं की देख-रेख में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राहम्णों को इनके पुराने पदों से हटा दें। यह दखलंदाज़ी इस समुदाय के लिए परेशानी का कारण है। इसलिए यह हमारा फ़रमान है कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई भी व्यक्ति ग़ैर-कानूनी रूप से दखलंदाजी न करे और न उन स्थानों के ब्राहम्णों एवं अन्य हिन्दु नागरिकों को परेशान करे। ताकि पहले की तरह उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए प्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरन्त लागू किया जाये।’’ इस फरमान से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि औरंगज़ेब ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरूद्ध कोई नया हुक्म जारी नहीं किया, बल्कि उसने केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबन्दी पर ज़ोर दिया। पहले से मौजूद मन्दिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस फ़रमान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था। यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमान मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। यह फरमान इस प्रकार हैः ‘‘रामनगर (बनारस) के महाराजाधिराज राजा रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्ज़ी पेश की हैं कि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग गोसाईं को परेशान कर रहे हैं। अतः यह शाही फ़रमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान एवं आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका न सके, और न उनके मामलें में हस्तक्षेप करे, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना करते रहें। इस फरमान पर तुरं अमल गिया जाए।’’ (तीरीख-17 बबी उस्सानी 1091 हिजरी) जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता चलता है कि औरंगज़ैब कभी यह सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा के अधिकार किसी प्रकार से भी छीने जाएँ, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। वह अपराधियों के साथ सख़्ती से पेश आता था। इन फरमानों में एक जंगम लोंगों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओर से एक मुसलमान नागरिक के दरबार में लाया गया, जिस पर शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफ़सरों को सूचित किया जाता है कि पुराना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने शिकायत की है कि बनारस के एक नागरिक नज़ीर बेग ने क़स्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर क़ब्जा कर लिया है। उन्हें हुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदा की मिल्कियत का अधिकार प्रमानिण हो जाए तो नज़ीर बेग को उन हवेलियों में दाखि़ल न होने दया जाए, ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिएए हमारे दरबार में ने आना पडे। इस फ़रमान पर 11 शाबान, 13 जुलूस (1672 ई.) की तारीख़ दर्ज है। इसी मठ के पास मौजूद एक-दूसरे फ़रमान में जिस पर पहली नबीउल-अव्वल 1078 हि. की तारीख दर्ज़ है, यह उल्लेख है कि ज़मीन का क़ब्ज़ा जंगमियों को दया गया। फ़रमान में है- ‘‘परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमान और भावी जागीरदारों एवं करोडियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के हुक्म से 178 बीघा ज़मीन जंगमियों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) को दी गई। पुराने अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया है कि ज़मीन पर उन्हीं का हक़ है। अतः शहंशाह की जान के सदक़े के रूप में यह ज़मीन उन्हें दे दी गई। ख़रीफ की फसल के प्रारम्भ से ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा बहाल किया जाय और फिर किसीप्रकार की दखलंदाज़ी न होने दी जाए, ताकि जंगमी लोग(शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) उसकी आमदनी से अपने देख-रेख कर सकें।’’ इस फ़रमान से केवल यही ता नहीं चलता कि औरंगज़ेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, बल्कि यह भी साफ़ नज़र आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभाव नहीं बरता था। जंगमियों को 178 बीघा ज़मीन संभवतः स्वयं औरंगज़ेब ही ने प्रदान की थी, क्योंकि एक दूसरे फ़रमान (तिथि 5 रमज़ान, 1071 हि.) में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह ज़मीन मालगुज़ारी मुक्त है। औरंगज़ेब ने एक दूसरे फरमान (1098 हि.) के द्वारा एक-दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी-माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं एक मर्क़जी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घर के सामने और दूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है। हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़के को ‘इनाम’ के रूप में प्रदान किया, ताकि उक्त प्लाटों पर बाहम्णें एवं फ़क़ीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और हमारी ईश- प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दूआ और प्रार्थना कने में लग जाएं। हमारे बेटों, वज़ीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोग़ा और वर्तमान एवं भावी कोतवालों के अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के क़ब्ज़े ही मे रहने दें और उनसे न कोई मालगुज़ारी या टैक्स लिया जसए और न उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।’’ लगता है औरंगज़ेब को अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान रहता था। हमारे पास औरंगज़ेब का एक फ़रमान (2 सफ़र, 9 जुलूस) है जो असम के शह गोहाटी के उमानन्द मन्दिर के पुजारी सुदामन ब्राहम्ण के नाम है। असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मन्दिर और उसके पुजारी को ज़मीन का एक टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी, ताकि भोग का खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत रखने का आदेश दिया। हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगज़ेब की सहिष्ण्ता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है। यह शिवजी के प्रमुख मन्दिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है। इसके लिए काफ़ी दिनों से पतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाथा था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा। औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया। इस सिलसिले में पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फ़रमान तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक आदेश की नक़ल ज़रूर है जो औरंगज़ब के काल में शहज़ादा मुराद बख़्श की तरफ से जारी किया गया था। 5 शव्वाल 1061 हि. को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहज़ादा ने मन्दिर के पुजारी देव नारायण के एक आवेदन पर जारी किया था। वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया हैं कि मन्दिर के दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर अकबरी घी प्रतिदिन के हिसाब से उपल्ब्ध कराएँ। इसकी नक़ल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153 हिजरी) में मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की। साधारण्तः इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिन्तामणि मन्दिर को ध्वस्त किया गया, परन्तु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगज़ेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मन्दिरों को काफ़ी बड़ी जागीरें प्रदान कीं। मन्दिर तोड़ने की घट्ना निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाण्ति होता हैं कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मन्दिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुज़र रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहा। क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा दनी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मन्दिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएँगी। औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बडी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवा कर देख तो तहखाने की सीढी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई कने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है। अतः विश्नाथ जी की मूर्ति को कहीं और लेजा कर स्थापित कर दिया जाए और मन्दिर को गिरा कर ज़मीन को बराबर कर दिया जाए और महंत को गिरफ्तार कर लिया जाए। डाक्टर पट्ठाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा. पी. एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है। मस्जिद तोड़ने की घटना गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालगुज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षों में यह रक़म करोड़ों की हो गई। तानाशाह न यह ख़ज़ाना एक जगह ज़मीन में गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश दे दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन- कल्याण के कामों मकें ख़र्च किया गया। ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि औरंगज़ेब न्याय के मामले में मन्दिर और मस्जिद में कोई फ़र्क़ नहीं समझता था। ‘‘दर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया जाने लगा, और उन लोगों को दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढंत बातों में अन्तर करते हैं। आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे ग़लत रंग देने में लगे हुए हैं। साभार पुस्तक ‘‘इतिहास के साथ यह अन्याय‘‘ प्रो. बी. एन पाण्डेय, मधुर संदेश संगम, अबुल फज़्ल इन्कलेव, दिल्ली-

अल्लाह के स्वरूप और सात आसमान पर आपत्ति का जवाब

आर्यो और हिन्दू भाइयो के सात आसमान और अल्लाह के स्वरूप पर आपत्ति का जवाब-

सात आसमान-
कुरआन में कई जगह जि़क्र आया है कि आसमान सात हैं। मसलन कुरआन हकीम की 67 वीं सूरह मुल्क की तीसरी आयत, ”जिसने (अल्लाह ने) एक के ऊपर एक सात आसमान बनाये। तुम रहमान की आफरनिश में कोई क़सर न देखोगे। 
इस तरह की आयतों के बारे में अक्सर लोगों को कौतूहल रहता है कि क्या वाक़ई सात आसमान हैं और अगर हैं तो उनकी हक़ीक़त क्या है? कुछ लोग इसको साइंस के खिलाफ भी कह देते हैं। लेकिन अगर इमाम अली(अ.) की एक हदीस पर गौर किया जाये तो सात आसमानों की हक़ीक़त न सिर्फ स्पष्ट होती है बलिक उसका समर्थन साइंस भी करती नज़र आती है।  
यह हदीस शेख सुददूक (अ.र.) की किताब अललश्शराअ में दर्ज है और ‘नादिर अलल और असबाब’ के टाइटिल के अन्तर्गत इस तरह है : एक मरतबा हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम मसिजदे कूफा में थे। मजमे से एक मर्द शामी उठा और अर्ज किया या अमीरलमोमिनीन में आपसे चन्द चीजों के मुतालिक कछ दरियाफ्त करना चाहता हूं। आपने फरमाया सवाल करना है तो समझने के लिये सवाल करो। महज़ परेशान करने के लिये सवाल न करना। उसके बाद सायल ने सवाल किये उनमें से दो सवाल इस तरह थे,
उसने सवाल किया कि ये दुनियावी आसमान किस चीज़ से बना?आपने फरमाया आंधी और बेनूर मौजों से। फिर उसने सातों आसमान के रंग और उनके नाम दरियाफ्त किये। तो आपने फरमाया 
पहले आसमान का नाम रफीअ है और उसका रंग पानी व धुएँ की मानिन्द है। और दूसरे आसमान का नाम क़ैदूम है उसका रंग तांबे की मानिन्द है। तीसरे आसमान का नाम मादून है उसका रंग पीतल की मानिन्द है। चौथे आसमान का नाम अरफलून है उसका रंग चाँदी की मानिन्द है। पाँचवें आसमान का नाम हय्यून है उसका रंग सोने की मानिन्द है। छठे आसमान का नाम उरूस है उसका रंग याक़ूत सब्ज़ की मानिन्द है। सातवें आसमान का नाम उज्माअ है उसका रंग सफेद मोती की मानिन्द है।
अब हम इन सवालों व जवाबों को मौजूदा साइंस की रोशनी में गौर करते हैं।
अगर ज़मीन के आसमान की बात की जाये तो पूछने वाले का मतलब वायुमंडल से था जो ज़मीन के ऊपर हर तरफ मौजूद है। हम जानते हैं कि वायुमंडल में गैसें हैं और साथ में आयनोस्फेयर है जहां पर आयनों की शक्ल में गैसों की लहरें हैं। ये गैसें कभी एक जगह पर तेजी के साथ इकटठा होती हैं तो आँधियों की शक्ल में महसूस होती हैं और कभी बिखरती है तो मौसम पुरसुकून होता है। इसके बावजूद फिज़ा कभी इन गैसों से खाली नहीं होती। 
अगर आम आदमी को समझाने के लिये कहा जाये तो ज़मीन की फिज़ा में आंधियां हैं और लहरें या मौजें। चूंकि ये मौजें रोशनी की नहीं है बलिक मैटर की हैं लिहाज़ा हम इन्हें बेनूर मौजें कह सकते हैं। और यही बात इमाम अली अलैहिस्सलाम के जवाब में आ रही है।  
सवाली का अगला सवाल आसमान के रंग के मुताल्लिक था। जब हम ज़मीन पर रहते हुए आसमान की तरफ नज़र करते हैं तो यह नीले रंग का दिखाई देता है। जबकि शाम या सुबह के वक्त इसका रंग थोड़ा बदला हुआ लाल या काला मालूम होता है। 
लेकिन जो लोग स्पेसक्राफ्ट के ज़रिये ज़मीन से बाहर जा चुके हैं। उन्हें न तो ये आसमान नीला दिखार्इ दिया और न ही लाल। दरअसल ये रंग ज़मीन पर इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि ज़मीन का वायुमंडल सूरज की रोशनी में से खास रंग को हर तरफ बिखेर देता है। 
चूंकि ज़मीन के बाहर वायुमंडल नहीं है इसलिए वहां ये रंग नहीं दिखाई देते। तो फिर वहां कौन सा रंग दिखाई देगा? ज़ाहिर है कि वहां चारों तरफ ऐसा कालापन दिखाई देगा जिसमें पानी की तरह रंगहीनता (colorlessness) होगी। यही रंग बाहर जाने वाले फिजाई मुसाफिरों ने देखा और यही बात इमाम अली अलैहिस्सलाम अपने जवाब में बता रहे हैं कि पहले आसमान का रंग पानी व धुएं की मानिन्द है। 
पानी का रंग नहीं होता और धुएं का रंग काला होता है। दोनों को मिक्स करने पर जो रंग बनता है वही फिजाई मुसाफिरों को ज़मीन से बाहर निकलने पर दिखाई देता है।
उसके आगे के आसमानों तक साइंस की पहुंच ही नहीं हुई है अत: कुछ कहना बेकार है। तमाम सितारे पहले आसमान में ही हैं।
जो बातें आज साइंसदानों को ज़मीन से बाहर निकलने पर मालूम हुई हैं वह इमाम अली अलैहिस्सलाम चौदह सौ साल पहले मस्जिद में बैठे हुए बता रहे थे। और इस्लाम के सच और इल्म की गवाही दे रहे थे। वह इल्म जो दुनिया के सामने चौदह सौ साल बाद आने वाला था।

अल्लाह का स्वरूप-

अकसर गैर मुस्लिम मुसलमानों में इस्लाम के प्रति शंकाएँ उत्पन्न करने के लिए उनसे तरह तरह के प्रश्न करते रहते हैं। 
बहुत से मुसलमान अज्ञानता के कारण उनसे प्रभावित हो जाते हें। उनके इन प्रश्नों में से कुछ प्रश्न अल्लाह के व्यक्तित्व के बारे में होते हैं, जिसमे वे पवित्र कुरआन की कुछ आयात के अर्थों का अनर्थ करते हैं और साधारण मुसलमानों को परेशान करते हैं। 
वे मुसलमानों से पूछते हैं कि क्या कुरआन में बताया गया है कि अल्लाह के हाथ हैं?, अल्लाह किसी सिंहासन (अर्ष या कुर्सी) पर बैठे हैं? 
उस सिंहासन को आठ फरिश्ते उठाए हुए हैं? क्या अल्लाह शरीरधारी और साकार है? 
इन प्रश्नों के बाद वे आर्य प्रचारक वेदों से ईश्वर को निराकार सिद्ध करने लगते हैं और वेद के ईश्वर की बड़ाई करने लगते हैं। 
साधारण मुसलमान उनके प्रश्नों से शंकाओं में घिर जाता है। इस लेख में मैं यह कोशिश करूंगा कि इन प्रश्नों का सही उत्तर आपको मिल जाए। इन सब बातों को समझने के लिए एक सिद्धान्त ज़रूर याद रखना चाहिए। कि अल्लाह के गुणों के बारे में जिन शब्दों का प्रयोग हम अपने जीवन में करते हैं, 
वे शब्द उन गुणों की वास्तविकता को व्यक्त करने वाले नहीं होते हैं, क्योंकि जिन शब्दों का हम अल्लाह के गुणों को बताने के लिए प्रयोग करते हैं, उनही का प्रयोग हम अपने गुणों को बताने के लिए करते हैं, यद्यपि अल्लाह के गुण हमारे तरह के नहीं। उदाहरण के लिए जब हम अपने बारे में ‘ देखना‘ शब्द का प्रयोग करते हैं, 
तो हमारे दिमाग में यह अवधारणा होती है कि हम एक आँख रखते हैं, जिस में दृष्टि की क्षमता है, फिर बाहर से रोशनी की किरणें वस्तुओं से टकराकर हमारी आँखों में उनकी तस्वीरें बनाती हैं जो दृष्टि तंत्रिका (optic nerve) के माध्यम से हमारे दिमाग तक पहुँचती हैं। लेकिन यही शब्द ‘देखना‘ जब हम अल्लाह के लिए बोलते हैं, तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि अल्लाह को भी देखने के लिए आँखों की या रोशनी की या दृष्टि तंत्रिका की आवश्यकता है। 
इसी प्रकार ‘सुनना‘ शब्द का हम अल्लाह के लिए प्रयोग करते हैं कि वह हमारी स्तुतियों और प्रार्थनाओं को सुनता है। लेकिन जब एक आर्यसमजी या हिन्दू भी कहता है कि “ईश्वर सब कुछ देखता है और सब कुछ सुनता है’ तो कोई मूर्ख पंडित उस से नहीं पूछता कि क्या ईश्वर की आँखें और कान हैं? 
मैं भी आर्यों से पूछता हूँ कि जब ऋग्वेद परमेश्वर को विश्वचक्षाः 
अर्थात ‘समस्त जगत का दृष्टा परमेश्वर‘ कहता है (देखो मण्डल 10, सूक्त 81, मंत्र 2) 

 तो क्या तुम्हारे ईश्वर की वास्तव में आँखें (चक्षु) हैं? इसी के बाद का मंत्र इस प्रकार है विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् | 
अर्थात – सब तरफ आखों वाला, सब तरफ मुख वाला, सब तरफ बाहु वाला, सब तरफ पैर वाला (परमेश्वर है) [ ऋग्वेद 10/81/3] 

अब अगर कोई इनसे पूछे कि क्या तुम्हारे परमेश्वर की आँखें, मुख, बाज़ू और पैर हैं, तो क्या उत्तर देंगे? अल्लाह के बारे में 
पवित्र कुरआन में आया है,
अर्थात – उसके सदृश कोई चीज़ नहीं। वही सबकुछ सुनता, देखता है [सूरह शूरा 42; आयत 11] 

आर्यों को इसी वास्तविकता के न समझने के कारण ठोकर लगी है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार हम दुनिया में कोई वस्तु बिना साधन के नहीं बना सकते वैसे ही उनका ईश्वर भी बिना साधनों के कुछ नहीं बना सकता। यद्यपि दूसरी और यह भी मानते हैं कि उनका ईश्वर देखता है लेकिन हमारी तरह नहीं। सुनता है, लेकिन हमारी तरह नहीं। इन गुणों में हमारी तरह किसी साधन पर निर्भर नहीं है, फिर समझ में नहीं आता कि कोई वस्तु बनाने में साधनों पर निर्भर क्यों है? 

पवित्र कुरआन में आया है,
अर्थात – और यहूदी कहते है, “अल्लाह का हाथ बँध गया है।” उन्हीं के हाथ-बँधे है, और फिटकार है उनपर, उस बकवास के कारण जो वे करते है, बल्कि उसके दोनो हाथ तो खुले हुए है। वह जिस तरह चाहता है, ख़र्च करता है। [सूरह माइदह 5; आयत 64] 

अब यहाँ शब्द ‘यद‘ ﻳَﺪَ से कोई शारीरिक हाथ तात्पर्य नहीं है। बल्कि यह एक आलंकारिक विवरण है। यहूदियों ने गरीब मुसलमानों को ताना देकर अल्लाह पर एक अपमानजनक आक्षेप किया कि अल्लाह का हाथ बंधा है अर्थात अल्लाह कंजूस है। मुसलमानों को भौतिक सुख नहीं देता। 
इस पर उत्तर मिला कि अल्लाह के दोनों हाथ खुले हैं अर्थात अल्लाह तो उदार है। अल्लाह इन गरीब मुसलमानों को आध्यात्मिक और भौतिक सुख, दोनों देगा और तुम देखते रह जाओ गे। अब ज़रा हम ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध सूक्त, मण्डल 10, सूक्त 90, को देखलें जिसको पुरुष सूक्त कहा जाता है। 

इस सूक्त में आर्यों के ईश्वर को एक पुरुष की तरह बताया गया है और इस शरीरधारी ईश्वर के अंगों से अलग अलग वस्तुओं का पैदा होना बताया गया है। 
इसी सूक्त के मंत्र 12 और 13 को देखिए, 

बराह्मणो.अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः | ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत || चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत | मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च पराणाद वायुरजायत || 
उस परमेश्वर के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए, उसके बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। उसके मन से चंद्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु (आँखों) से सूर्य, मुख से इंद्रा और अग्नि तथा प्राण से वायु उत्पन्न हुए। [ऋग्वेद 10/90/12-13] 

अब देखिए, इन मंत्रों में तो स्पष्ट लिखा है इनके पुरुष रूपी ईश्वर के किस किस अंग से क्या उत्पन्न हुआ। कुछ आर्यसमजी इस मंत्र 12 के अर्थ का अनर्थ करते हैं ताकि इस मंत्र में पैदाइश के आधार पर जो भेद भाव बातया गया है उसपर पर्दा डालें। इन लोगों के अनुसार यहाँ यह बताया गया है कि एक समाज में ब्राह्मण का स्थान मुख के सदृश है, क्षत्रिय का स्थान बाहु के सदृश है, वैश्य का स्थान उरू के समान है तथा शूद्र का स्थान पैरों के समान है। 
लेकिन यदि हम इस व्याख्या को स्वीकार कर लें तो इन आर्यों के लिए एक और चुनौती खड़ी होगी। अगर इन आर्यों के यह अर्थ मान लें तो अगले मंत्र में मानना पड़ेगा कि चंद्रमा को संसार में मन के सदृश और सूर्य को चक्षु के सदृश बताया गया है। इंद्र एवं अग्नि को मुख के समान मानना पड़ेगा और वायु को प्राण के समान। इस संसार में क्या चंद्रमा एकमात्र चंद्रमा है जो इसको इस सारे संसार का मन स्वीकार कर लिया जाए? क्या सूर्य एकमात्र सूर्य है जो इसको संसार की आँख स्वीकार कर लिया जाए? 
तो पता चला कि आर्यों के शाब्दिक खेल से उनके वेद विज्ञान वीरुध सिद्ध हो जाएँ गे। वास्तव में इन मंत्रों के वही अर्थ हैं जो मैंने लिखे हैं और पुरुष रूपी ईश्वर के अलग लगा अंग बताए गए हैं, जिन से अलग अलग चीज़ें उत्पन्न बताई गई हैं। सारे कुरआन में कुछ ऐसे शब्दों का प्रोयोग हुआ हैं जिन को समझने में लोगों को ठोकर लगी है। वह शब्द हैं ‘कुर्सी‘ ﻛﺮﺳﻲ एवं ‘अर्ष ‘ ﻋﺮﺵ ‘कुर्सी‘ ﻛﺮﺳﻲ अरबी भाषा में वस्तु को कहते हैं जिस पर बैठा जाता है। 
लेकिन इस शब्द का अनेक बार अरबी भाषा में आलंकारिक उपयोग भी होता है जब इसका अर्थ कभी प्रभुता, सत्ता और ताकत होता है और कभी ज्ञान। इसी आलंकारिक अर्थ में इस का प्रयोग सुरह बकरह 2; आयत 255 में हुआ है जहां फरमाया गया है , ﻳَﻌْﻠَﻢُ ﻣَﺎ ﺑَﻴْﻦَ ﺃَﻳْﺪِﻳﻬِﻢْ ﻭَﻣَﺎ ﺧَﻠْﻔَﻬُﻢْ ۖ ﻭَﻟَﺎ ﻳُﺤِﻴﻄُﻮﻥَ ﺑِﺸَﻲْﺀٍ ﻣِﻦْ ﻋِﻠْﻤِﻪِ ﺇِﻟَّﺎ ﺑِﻤَﺎ ﺷَﺎﺀَ ۚ ﻭَﺳِﻊَ ﻛُﺮْﺳِﻴُّﻪُ ﺍﻟﺴَّﻤَﺎﻭَﺍﺕِ ﻭَﺍﻟْﺄَﺭْﺽَ अर्थात – वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे है। और वे उसके ज्ञान में से किसी चीज़ पर हावी नहीं हो सकते, सिवाय उसके जो उसने चाहा। उसकी कुर्सी (ज्ञान) आकाशों और धरती को व्याप्त है [2/255] इस आयत की तफ़सीर (व्याख्या) स्वयं हदीस में हमें मिलती है जिस से सारी गुत्थी हल हो जाती है। 

हदीस के मुख्य ग्रंथ बुखारी, कितबे तफ़सीर इस आयत की व्याख्या करते हुए यही लिखा ﻛﺮﺳﻴﻪ ﻋﻠﻤﻪ अर्थात – अल्लाह की कुर्सी से तात्पर्य उसका ज्ञान है [सही बुखारी, कितबे तफ़सीर, तफ़सीर सूरह बकरह] इस व्याख्या के बाद और किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। पवित्र कुरआन के एक महत्वपूर्ण शब्दकोश, इमाम रागिब की ‘मुफ़्रदात अल्क़ुरआन’ में भी इस आयत की यही व्याख्या की गई है। ‘अर्ष ‘ ﻋﺮﺵ शब्द अरबी भाषा में वास्तव में छत वाली चीज़ को कहते हैं। इसलिए पवित्र कुरआन के महत्वपूर्ण शब्दकोश, ‘मुफ़्रदात अल्क़ुरआन’ में यही लिखा है ﺍﻟﻌﺮﺵ ﻓﻲ :ﻞﺻﻷﺍ ﺷﺊ ﻣﺴﻘﻒ ﻭ ﺟﻤﻌﻪ ﻋﺮﻭﺵ 
अर्थात – ‘अल-अर्ष’ अपने धातु में कहते हैं छत वाली चीज़ को और इसका जमा (बहुवचन) ‘ऊरूष’ है। पवित्र कुरआन में भी है, ﻭَﻫِﻲَ ﺧَﺎﻭِﻳَﺔٌ ﻋَﻠَﻰٰ ﻋُﺮُﻭﺷِﻬَﺎ व हिय खावियतुन अला उरूषिहा अर्थात- जो अपनी छतों के बल गिरी हुई थी। [सूरह बकरह 2; आयत 259] 

अंगूर की बेल के ऊपर चढ़ाने में भी इस शब्द का प्रयोग होता है। बांस आदि की जालियों पर चढ़ाई हुई बेल को ﻣﻌﺮﺵ ‘मुआर्रष‘ भी कहा जाता है। पवित्र कुरआन में है ﻣَﻌْﺮُﻭﺷَﺎﺕٍ ﻭَﻏَﻴْﺮَ ﻣَﻌْﺮُﻭﺷَﺎﺕٍ मारूषातिन व गैरु मारूषातिन अर्थात – कुछ जालियों पर चढ़ाए जाते है और कुछ नहीं चढ़ाए जाते [सूरह अनाम 6; आयत 141] इसी से बादशाह के तख्त (सिंहासन) को भी उसकी ऊंचाई के कारण ‘अर्ष ‘ कहा जाता है। क्योंकि छत भी ऊंची होती है। अल्लाह के लिए पवित्र कुरआन में ‘ अर्ष‘ शब्द का चार प्रकार प्रयोग हुआ है। उन सब स्थानों में इसका आलंकारिक रूप में वर्णन हुआ है। यह स्वयं कुरआन से सिद्ध है। उदाहरण के लिए देखिए  
निस्संदेह तुम्हारा रब वही अल्लाह है, जिसने आकाशों और धरती को छः दिनों (कालों) में पैदा किया, और सिंहासन पर विराजमान हुआ; व्यवस्था चला रहा है। [सूरह यूनुस 10; आयत 3] 

अर्थात धरती और आकाशों पर उसी की प्रभुता है और वही उनकी व्यवस्था चला रहा है। यहाँ से स्पष्ट हो गया कि ﺍﺳْﺘَﻮَﻯٰ ﻋَﻠَﻰ ﺍﻟْﻌَﺮْﺵِ के अर्थ अपनी रचना पर प्रभुता और उसकी व्यवस्था है। इसीलिए ‘मुफ़्रदात अल्क़ुरआन’ में यही लिखा ﻭﻛﻨﻲ ﺑﻪ ﻋﻦ ﺍﻟﻌﺰ ﻭ ﺍﻟﺴﻠﻄﺎﻥ ﻭ ﺍﻟﻤﻤﻠﻜﺔ बतौर मुहावरा ‘ अर्ष‘ (सिंहासन) का शब्द सम्मान, प्रभुता और राज्य के अर्थों में बोला जाता है। 

तो अल्लाह के शरीरधारी होने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि यह एक आलंकारिक विवरण है। परन्तू वेद का ईश्वर अवश्य सीमित और शरीरधारी है। तभी तो एक साल तक खड़ा रहने के बाद वह कुर्सी पर बैठ गया। वैदिक परमेश्वर एक साल तक खड़ा रहा, फिर कुर्सी पर बैठ गया शायद वैदिक धर्मियों को वेदों में परमेश्वर की कुर्सी का ज्ञान ही नहीं है, इसी लिए आए दिन इस्लाम के विरुद्ध शोर मचाए रहते हैं। 

चलिए मैं ही उनको उनके परमेश्वर की कुर्सी दिखा देता हूँ। अथर्ववेद काण्ड 15, सूक्त 3 मंत्र 1 से 3 पढ़ते हैं, सं संवत्सरमूर्ध्वो अतिष्ठत् तं देवा अब्रुवन व्रात्य किं नु तिष्ठसीति ॥ सो अब्रवीदासन्दीं मे सं भरन्त्विति ॥ यस्मै व्रात्यायासन्दीं समभरन् ॥ वह व्रात्य (परमेश्वर) वर्ष भर तक ऊंचा खड़ा रहा। उस से देवताओं ने पूछा, हे व्रात्य (परमेश्वर), तू क्यों खड़ा है? उस ने कहा, मेरे लिए मिलकर एक कुर्सी (सिंहासन) ले आओ। उस व्रात्य (परमेश्वर) के लिए, उनहों ने मिलकर कुर्सी (सिंहासन) लाई। 

और वह उसी कुर्सी पर बैठ गया। आगे आपको आर्य ही बताएँगे की वह कुर्सी क्या थी और कैसी थी। एक साल तक ईश्वर बिना कुर्सी के खड़ा रहा। ऐसा क्यों? लगता है वैदिक ईश्वर भूल ही गया था कि उसे बैठना है। इसी लिए देवताओं ने उसे याद दिलाया। आर्य भी जवाब दें। थोड़ा सा काम इन आर्यों को भी करने दो। इसके बाद जिस आयत पर शंका होती है वह इस प्रकार है, ﻭَﻳَﺤْﻤِﻞُ ﻋَﺮْﺵَ ﺭَﺑِّﻚَ ﻓَﻮْﻗَﻬُﻢْ ﻳَﻮْﻣَﺌِﺬٍ ﺛَﻤَﺎﻧِﻴَﺔٌ और उस दिन तुम्हारे रब के सिंहासन को आठ अपने ऊपर उठाए हुए होंगे [सूरह अलहाकह 69; आयत 17] 

यह मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि बतौर मुहावरा ‘अर्ष ‘ (सिंहासन) का शब्द सम्मान, प्रभुता और राज्य के अर्थों में बोला जाता है। और हमें यह भी ज्ञान है कि ‘उठाना ‘, ‘धारण करना‘ के शब्द का भी बतौर मुहावरा प्रयोग होता है। उदाहरण स्वरूप जब हम कहते हैं ‘उसने अपने पिता के कारोबार का बोझ उठाया है’, क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि उसने कारोबार को अपने सर पर या अपने शारीरिक हाथों पर उठाया हुआ है? 

ऐसा तात्पर्य तो कोई मूर्ख ही लेगा। ऊपर की इस आयत का अर्थ भी सीधा सा है कि अल्लाह के राज्य और प्रबुता को फरिश्ते उठाए हुए होंगे, अर्थात अल्लाह की भव्यता इन फरिश्तों के माध्यम से प्रकट होती है और उस दिन 8 के माध्यम से होगी क्योंकि उनकी रचना का उद्देश्य यही है। इस आयत में भी अल्लाह को शरीरधारी या मुजस्सिम नहीं बताया गया है जैसा की आर्यों के कुछ मूर्ख प्रचारक कहते हैं। 

लेकिन इसके विपरीत बृहदारण्यक उपनिषद में 8 वसुओं के बारे में कहा गया है जिनको बनाने की ईश्वर को आवश्यकता पढ़ी। देखो इसी उपनिषद का अध्याय 3, ब्राह्मण 9, मंत्र 3 और अध्याय 1, ब्राह्मण 4, मंत्र, मंत्र 12। अंत में आर्यों और अन्य हिंदुओं से, जो आए दिन अल्लाह के व्यक्तित्व के बारे में बकवास करते रहते हैं, उनके ही ऋषि याज्ञवलक्य की सलाह सुनाना चाहूँगा जो उनहों ने गार्गी को दी थी, जब गार्गी ने ईश्वर के बारे में अधिक प्रश्न कर दिए थे। याज्ञवलक्य ने कहा, हे गार्गी। इस से आगे मत पूछ। इस प्रकार पूछने से तेरा मस्तक गिर जाए गा। 

आक्षेप मुख से नहीं जानने योग्य देवता के बारे में अधिक प्रश्न कर रही है। हे गार्गी, इस प्रकार शस्त्र की मर्यादा का अतिक्रमण करके बहुत प्रश्न मत करो। उसके बाद वचक्नु ऋषि की पुत्री गार्गी चुप हो गई। [बृहदारण्यक उपनिषद 3/6/1