Sunday 17 May 2020

आर्यो,हिन्दुओ का कुरान की आयतो पर आपत्ति का जवाब

।।काफ़िर और नास्तिक।।

"सत्यार्थप्रकाश" के कर्त्ता द्वारा हिन्दू समाज और अन्य धर्म में यह भ्रम और भ्रांति फैलाई गई कि कुरआन में काफिरों के लिए आक्रमक और अपमानजनक घोषणाएं हैं। देश का एक विशिष्ट वर्ग कुरआन की कुछ आयतों (मंत्रों) को लेकर इसी प्रकार की आपत्ति करता है और कहता है कि इस्लाम न केवल अन्य धर्मों का अनादर करता है बल्कि जुल्म और अत्यचार को भी प्रोत्साहित करता है। कुरआन की कुछ आयतों को यहां उद्घृत किया जा रहा है जिन पर लोगों को आपत्ति है और जिन्हें "सत्यार्थप्रकाश" में अति अशिष्ट भाषा में आरोपित किया गया है।
1. "काफ़िरों को अपना मित्र न बनाओ।" (3:28)
2. "मुशरिक तो बस अपवित्र ही हैं।" (9:28)
3. "मुशरिक (काफ़िर) को जहाँ पाओ क़त्ल करो।" (9:5)
4. "जब काफ़िरों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम इनकी गर्दनें मारना है।" (47:4) आदि...


उपरोक्त आयतों को समझने के लिए हमें न केवल उस पृष्ठभूमि और उन परिस्थितियों को समझना पड़ेगा जिनमें ये आयतें अवतरित हुई हैं बल्कि हमें इस्लाम के उद्देश्य और मिशन को भी समझना होगा। केवल आयतें (मंत्रों को) पढ़कर और सुनकर आरोप लगाना बुद्धिमात्ता नहीं है। इस्लाम शान्ति, एकता और समानता का आवाहक है। वह दुनिया में कुफ्र (नास्तिकता) को सबसे बड़ा जुल्म, बिगाड़ और फ़साद का कारण समझता है, इसलिए इसे मिटाने और समूल नष्ट करने को प्राथमिकता देता है। यही इस्लाम का मूल उद्देश्य और मिशन है।
इस असीम और अद्भुत ब्रह्मांड का सृजन करने वाली सत्ता सिर्फ एक है, वही एक मात्र व्यवस्थापक, नियामक, न्यायध्यक्ष और उपास्यदेव है। उसको छोड़कर किसी अन्य शक्ति, सत्ता अथवा देवी-देवता को इष्ट और न्यायध्यक्ष समझना कुफ़्र (नास्तिकता) है। मानव जीवन से जुड़ा यह एक ऐसा स्तय है कि इससे कोई अक़्ल का अंधा व्यक्ति ही इंकार कर सकता है और जो इस सत्य का इनकार करता है वह व्यक्ति अथवा समूह यक़ीनन नास्तिक (काफ़िर) है। कोई व्यक्ति या समुदाय अगर अपने पैदा करने वाले का ही इनकार के दे, इससे बड़ा गुनाह (पाप) और क्या हो सकता है ? इस्लाम मुख्यतः इसी स्तय का प्रतिपादन करता है। इसी स्तय का स्थापन ही इस्लाम का मुख्य उद्देश्य और मिशन है। वेद भी इसी स्तय का प्रतिपादन करती हैं।
इस्लाम की दृष्टि में उक्त स्तय का इनकार और विरोध एक नाकाबिल-ए-माफ़ी गुनाह (पाप) है। मृत्योपरांत इस गुनाह-ए-अज़ीम (बड़ी पाप) का अंजाम अति भयानक हैं। मानव जाति के अंतिम चरण में सम्पूर्ण मानवता को इस भयानक अंजाम से बचाने के लिए यह उत्तरदायित्व इस्लाम के अंतिम सन्देशवाहक हज़रत मोहम्मद (सल्ल०) पर डाला गया। आपने (सल्ल०) इस्लाम की शिक्षा और सिद्धांतों को अत्यंत शान्तिमय तरीके से लोगों तक पहुंचाना प्रारम्भ कर दिया। आपका संबन्ध अरब क़ौम (समुदाय) से था जो एक बर्बर व असभ्य क़ौम थी। आपके सन्देश को लोगों ने सुना। 
सन्देश को सुनकर कुछ लोग आपके करीब आते गए। कुछ लोग आपके दुश्मन बन गए। आपके दुश्मनों ने आप व आपके साथियों को परेशान करना, अपमानित करना, मज़ाक उड़ाना, सख़्त बर्ताव, ईर्ष्या, द्वेष, गाली-गलौच करना प्रारम्भ कर दिया।
आपने फिर भी शान्तिमय तरीके से अपना सन्देश सुनाने और फैलाने का क्रम जारी रखा। आपके समकालीन लोगों ने आपके मिशन के बढ़ते प्रचार और प्रसार को देखकर आप व आपके साथियों को सताना व यातनाएं देनी प्रारम्भ कर दी। आपका बहिष्कार किया गया। भूखा-प्यासा रहने पर विवश किया गया। आप ताइफ़ (शहर) चले गए ताकि वहां के लोगों को अपना सन्देश सुनाकर अपना समर्थक बनाए, मगर वहाँ भी आपके साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया। 
पत्थर मार-मार कर आपको लहूलुहान कर दिया। आप फिर ताइफ़ (शहर) से मक्का (शहर) वापस आ गए। इस्लाम विरोधियों ने आपकी हत्या करने की योजनाएं बनाई। एक बार यहूदियों में से एक गिरोह ने आप व आपके ख़ास-ख़ास साथियों के खिलाफ एक गुप्त षडयन्त्र रचा कि आपको खाने की दावत पर बुलाकर अचानक आप पर जानलेवा हमला कर देंगे, मगर ठीक समय पर अल्लाह की कृपा से आपको इस षडयन्त्र का पता चल गया और आप दावत पर नहीं गए। एक बार कुरैशियों (समुदाय वालों) ने आपको मार डालने की साज़िश के तहत रात के समय आपके घर को चारों तरफ से घेर लिया मगर अल्लाह की कृपा से इस्लाम विरोधियों की यह साजिश भी नाकाम हो गई।
आप मक्का छोड़कर मदीना (शहर) चले गए, मगर इस्लाम के कट्टर विरोधियों ने वहां भी आपका पीछा नहीं छोड़ा। जो लोग आपकी शिक्षाओं को समझकर आपके साथ आना चाहते थे, उनको रोकने के लिए उनपर असहनीय जुल्मों-सितम ढाए गए। 
आपके ख़िलाफ भ्रम और भ्रांतियां फैलाई गई। जो समझौते और सिंधियां की गई, उनकी शर्तों को तोड़ा गया। आपको धोखा देने के लिए मुशरिकों (बहुदेववादीयों) और मुनाफिकों (कपटाचारियों/धोखेबाज़ों) ने मस्जिद के नाम से एक षडयन्त्र का अड्डा बनाया। आपको काबा की ज़ियारत से रोका गया, मगर फिर भी आपकी तरफ से कोई विरोधात्मक कार्यवाही नहीं कि गई।
आरम्भिक काल में इस्लाम स्वीकार करने वालों के ऐतिहासिक किस्से पढ़ने पर पता चलता है कि उन बेकसूर स्त्रियों व पुरुषों पर अमानुषिक जुल्मों-सितम को सुनकर कौन-सा दिल होगा जो न रो पड़ेगा। धधकते कोयलों, तपती बालू पर नंगे कर लिटाना, शरीर के अंगों को काट-काट कर निर्ममता व निर्दयता से हत्या करना, जुल्मों-सितम करने में अपने सगे-संबंधियों की परवाह न करना, भ्रम व भ्रांतियां फैलाकर लोगों को सही रास्ते की तरफ आने से रोकना आदि बातों की जब अति हो गई तब विषम व विकट परिस्थितियों में विवशता वश प्रतिशोधात्मक नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिए उन षड्यंत्रकारियों के साथ अल्लाह की तरफ से लड़ाई का आदेश अवतरित हुआ। 

कुरआन के कुछ अंश यहां उद्धृत किए जाते हैं-

1. "बहुत बुरी करतूत थी जो ये करते रहे। किसी ईमान वाले के मामले में न ये किसी नाते-रिश्ते की परवाह करते हैं और न किसी समझौते के दायित्व की, और ज़्यादती सदैव इन्हीं की ओर से हुई है।" (9:10)
2. "यदि प्रतिज्ञा के पश्चात ये फिर अपनी क़समों को तोड़ डालें और तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दें तो अधर्म के ध्वजावाहकों से युद्ध करो क्योंकि उनकी क़समों का कोई विश्वास नहीं।" (9:12)
3. "क्या तुम न लड़ोगे ऐसे लोगों से जो अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हैं और उन्होंने रसूल को देश से निकाल देने का निश्चय किया था, ज़्यादती का आरम्भ करने वाले वही थे।" (9-13)

यहां यह विचारणीय है कि क्या तार्किर्कता और बौद्धिकता का मुकाबला गाली-गलौच, पत्थर और तलवार से करने को न्यायसंगत कहा जा सकता है ? क्या किसी व्यक्ति अथवा गिरोह को महज इस कारण जुल्मों-सितम का निशाना बनाना कि वह हक (स्तय) को जानकर उसे क़बूल कर रहा है, तर्कसंगत कहा जा सकता है ? क्या किसी व्यक्ति अथवा गिरोह का विरोध इस वजह से करना कि वह लोगों को बुराई से रोकता है, भलाई की तरफ बुलाता है, बुद्धि सम्मत कहा जा सकता है ?
आप (सल्ल०) की लगभग 23 वर्ष की नबूवत की अवधि में मात्र 1018 लोग मारे गए जिनमें 259 आप के पक्ष के व 759 विरोधी पक्ष के थे (जंगो में)। जबकि विश्व में जितनी बड़ी क्रांतियां हुई हैं, उनमें मरने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके मुकाबले इस्लामी क्रांति को रक्तहीन क्रांति ही कहा जाएगा। 
यह भी विचारणीय है कि जिस व्यक्ति ने अविद्यान्धकार में डूबी ज़ालिम व बर्बर क़ौम को समता, न्याय, एकता, नैतिकता व शिष्टता का पाठ पढ़ाया हो, उसकी उद्दंडता, कुचरित्रता, अस्वच्छता को समाप्त कर एक उच्च कोटि की सभ्यता विकसित की हो, उस व्यक्ति के मिशन पर ये आरोप कि वह अनुदार व असहिष्णु तत्ववाद का प्रतिनिधित्व करता है, यह एक दुराग्रह से ग्रसित का आरोप तो हो सकता है मगर जिन लोगों ने कुरआन व उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का गहनता, गंभीरता व निष्पक्षता से अध्ययन किया है वे इस्लाम पर इतना घिनोना आरोप कभी न लगाएंगे। 
कुरआन का निष्कपटता के साथ अध्ययन व चिंतन किए बिना उसकी शिक्षाओं पर आरोप-प्रत्यारोप करना न केवल सांप्रदायिक विद्वेष उतपन्न करेगा, बल्कि नैतिक अपराध भी होगा। इस्लाम का स्वभाव सुधारात्मक व प्रचारत्मक है प्रतिशोधात्मक व धृणात्मक नहीं है। इस्लाम प्रेम व भाईचारे की बुनियादों पर जीवन का निर्माण करता है मगर शोषित व पीड़ित की सहायता व अन्याय व असत्य की उद्दंडता के लिए तलवार (हत्यार) उठाने को जायज़ ही नहीं अनिवार्य समझता है। 

कुरआन की निम्नलिखित आयतों पर भी एक दृष्टि डालिए-
1. "बुराई का बदला भलाई से दो, तुम देखोगे कि जिसे तुम से दुश्मनी थी, वह भी तुम्हारा गहरा दोस्त हो जाएगा।" (41:34)
2. "किसी जीव की नाहक़ हत्या न करो।" (6:151)
3. "किसी व्यक्ति को किसी खून का बदला लेने या धरती में फ़साद के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानों उसने सारे ही मनुष्यों की हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया उसने मानों सारे मनुष्यों को जीवनदान दिया।" (5:32) 
4. "किसी संप्रदाय विशेष की शत्रुता तुम्हारे लिए इस बात का कारण न बन जाए कि तुम न्याय न करो।" (5:8) 
5. "जो तुम पर जुल्म करें तुम उसे माफ कर दो।" (हदीस) 

उपर्युक्त तथ्यों और विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुरआन में जिन लोगों के लिए काफ़िर, ज़ालिम, मुशरिक, मुनाफ़िक़ आदि शब्द प्रयोग किए हैं, ये अत्यंत घृणित प्रवृत्ति के लोग थे, जिनके दिलों में कपट व नियतों में खोट था। जिन्होंने अपने आचरण से ये बात साबित कर दी थी कि वे वास्तव में झूठी मान बड़ाई की खातिर स्तय, सज्जनता व तर्क का मुकाबला झूठ, फरेब व तलवार से कर रहे थे। घिनोने षडयन्त्र रच-रच कर इस्लाम के अनुयायियों पर जुल्मों-ज्यादती कर रहे थे। इन्हें न रिश्तों-नातों का कोई लिहाज़ था, न अपनी क़समों की कोई परवाह। ये शब्द किसी जाति, रंग व नस्ल के लिए नहीं बोले गए हैं। 
ये सभी शब्द गुणवाचक हैं जो आपके समकालीन कुछ खास निकृष्ट प्रवृत्ति के लोगों के लिए प्रयोग किए गए हैं। 
निःसन्देह विश्व में कुछ मुस्लिम तत्व आतंक की कार्यवाही में लिप्त हैं। एक खास मानसिकता के वे तत्व जिहाद के नाम पे निर्दोष लोगों का खून बहा रहे हैं। कहने को वे मुस्लिम हैं, मगर वास्तव में वे इस्लाम के सच्चे अनुयायी नहीं है। 
इस्लाम तो सौहार्द और सहिष्णुता का प्रतिनिधित्व करता है, मगर तथाकथित तत्वों ने इस्लाम की उदारवादी छवि को अत्यंत नुकसान पहुंचाया है। इस्लाम जिस सहिष्णुता की मांग करता है, आज उसमें अत्यंत गिरावट देखने में आ रही है जो अत्यंत ही दुःखद और दुर्भग्यपूर्ण हे। विश्व का जनमानस इस्लाम और मुस्लिम समुदाय को जिस धृणित दृष्टि से देख रहा है इसके लिए इस्लाम की शिक्षा नहीं बालको मुस्लिम समुदाय दोषी और उत्तरदायी है।
अब जहां तक हिन्दू समुदाय का सवाल है, विराट हिन्दू समुदाय में उन लोगों की संख्या नगण्य है, जो वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मानते हैं। 
यहां यह विचारिणी है कि यदि सम्पूर्ण समाज वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मान ले तो फिर उनके लिए रामायण और गीता व्यर्थ और अस्वीकार्य हो जाएगी, क्योंकि वेदों और रामायण व गीता की धारणाएं एक दूसरे के विपरीत और विरोधी हैं। आर्यसमाजी धारा के लोग जो वेदों को अपनी एक मात्र धार्मिक पुस्तक मानते हैं, उनमें उन लोगों की संख्या नगण्य है, जिन्हें वेदों का समुचित ज्ञान है। दयानंदीय आस्था धारा के लोगों ने चूंकि "सत्यार्थ प्रकाश" को वेदों की कुंजी मान लिया है, इसलिए वे वेदों के मूल को पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझते। विडंबना तो यह है कि उन्हें वेदों का तो क्या, "सत्यार्थ प्रकाश" का भी समुचित ज्ञान नहीं है। 
वेद और मनुस्मृति में भी काफ़िर के समानार्थी शब्द के रूप में नास्तिक, म्लेच्छ, दस्यु आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। 
जो आक्रामक घोषणाएं कुरआन में काफ़िरों के लिए की गई हैं, वैसी ही घोषणाएं वेद और मनुस्मृति में वेद-निंदकों और नास्तिकों के लिए की गई हैं। कहीं-कहीं तो ऐसी धोषणाएँ भी की गई हैं, जिन्हें किसी भी आधार पर न्यायोचित और तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता।
आइए कुछ उदहारण देखते हैं-
"सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी जी स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-

"म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।" (मनुस्मृति 10:45)
"म्लेच्छ देश स्तवतः परः।" (मनुस्मृति 2:23)"भावार्थ: जो आर्यवत से भिन्न देश है वे दस्यु (दुष्ट) और म्लेच्छ देश कहलाते है।"-पृष्ठ 264:8 समुल्लास। 

जहां कुरआन में काफ़िर, मुशरिक, ज़ालिम आदि शब्द गुणवाचक के तौर पर आया हैं वही उक्त में दस्यु और म्लेच्छ शब्दों को स्थानवाचक के रूप में प्रयोग किया गया है अर्थात एक देश विशेष के अलावा अन्य देश के सभी मनुष्य चाहे वो सत्कर्मी और सदाचारी ही क्यों न हों, दस्यु और म्लेच्छ हैं। क्या उक्त धोषणा न्यायसंगत है ? आस्था और सद्गुण के स्थान पर भौगोलिक क्षेत्र और जन्मभूमि को अच्छे-बुरे का आधार बनाना कौन-सी ईश्वरीय व्यवस्था है ? 
आगे लिखा है- 
"हम सृष्टि विषय में कह आए हैं कि "आर्य" नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु हैं।"-पृष्ठ 324:11समुल्लास।

"जैसे आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही में भी मानता हूं।"-स्वमन्त०29।

अब जैसा कि उपरोक्त से स्पष्ट है कि सभी अनार्य चाहे वो उत्तम गुणों से युक्त हों "दुष्ट" हैं। 
दुष्टों के लिए मनुस्मृति में क्या सजा लिखी है, उसे भी देखिए।

"नाततापिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युं ऋच्छति।।" 
भावार्थ: दुष्ट पुरूषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता चाहे प्रसिद्ध (सबके सामने) मारे चाहे अप्रसिद्ध (एकान्त में) क्यों कि क्रोधी को क्रोध से मारना जानो क्रोध से क्रोध की लड़ाई है ।(मनुस्मृति 8:351)

"योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः ।स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः"
भावार्थ: जो तर्कशास्त्र के आश्रय से वेद और धर्मशास्त्र का अपमान करता अर्थात् वेद से विरूद्ध स्वार्थ का आचरण करता है, श्रेष्ठ पुरूषों को योग्य है कि उसको अपनी मण्डली से निकाल के बाहर कर देवें क्यों कि वह वेदनिन्दक होने से नास्तिक है । (मनुस्मृति 2:11)

"उपरुध्यारिं आसीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत् ।दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्।।"
भावार्थ: किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेरकर रोक रखे और इसके राज्य को पीडित कर शत्रु के चारा, अन्न, जल और इन्धन को नष्ट दूषित कर दे। (मनुस्मृति 7:195)

अथर्वेद 12:5:61 भावार्थ "वेद विरोधी दुराचारी पुरुष को न्याय व्यवस्था से जला कर भस्म कर डाले।"

अथर्वेद 12:5:62 भावार्थ "तू वेद निंदक को काट डाल, चिर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भस्म कर दें।

ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर "दस्यु" शब्द का प्रयोग हुआ है वेद विद्वानों ने दस्यु शब्द का अर्थ अनार्य, दुष्ट, शत्रु, प्रतिद्वंद्धि और यज्ञादि न करने वाले पतित लोग लिया है। ऋग्वेद में अनेक ऐसे मंत्र हैं जिनमे दस्युओं का नाश करने और मारने के लिए प्रार्थना की गई है।

ऋग्वेद 1:100:18 भावार्थ: "हे पुरुहूत, बहुत बार बुलाए गए इंद्र, अपने स्वभावनुसार दस्युओं और शिभ्युओं को पृथ्वी पर पटक कर वज्र द्वारा कुचल डालों।"
ऋग्वेद 10:38:3 भावार्थ: "हे विद्वान वा राजन! यदि उत्तम कर्म रहित दस्यु कर्मा मनुष्य! अथवा बलशाली मनुष्य और राक्षसी वृत्ति वाला मनुष्य हमें युद्ध के लिए ललकारे तो ये सभी शत्रु हमारे द्वारा परास्त होवें। आपके सहाय से रण में हम उन्हें मार भगायें।"

ऋग्वेद 10:22:8 भावार्थ: "हे काम आदि शत्रुओं का नाश करने वाले भगवन! जो उत्तम कार्यों को नहीं करने वाले, वेद विहित कर्मों के क्षय करने वाले, राक्षसी प्रवृत्ति के मनुष्य आप हन्ता होकर उनको विनष्ट करें।"

ऋग्वेद 9:41:2 भावार्थ "वेद नियमों का भंग करनेवाले नाशक आसुरी भाव को कुचलनेवाले बनते हैं।"

ऋग्वेद 10:28:8 भावार्थ: "शक्तिशाली लोग आगे बढ़े, हथियारों को धारण करें, जंगलों को काटते हुए और रास्ते में नदी पड़े तो उसके वेग को रोकते हुए पानी के वेग का अनुसरण करते हुए शत्रु सैन्य को दुग्ध करें।"

सत्यार्थ प्रकाश के दशम समुल्लास में स्वामी जी लिखते हैं- "कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी, कपटी, छली, आदि दुष्ट मनुष्यों का संग न करें।"पृष्ठ 310:10समुल्लास।

अगर कोई व्यक्ति उक्त विषय वस्तु को पढ़कर केवल बाह्य  शब्दों और अर्थों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल ले कि इसमें तो जैन, बौद्ध, सिख, यहूदी, ईसाई, मुसलमान, आदि विधर्मियों के लिए आक्रामक और अपमानजनक घोषणाएं है तो क्या इसे न्यायसंगत माना जाएगा ?
सन्दर्भ, पृष्टभूमि और परिस्थितियों से अनभिज्ञ, बिना किसी विवेक, अध्ययन और अन्वेषण के केवल शब्दों और वाक्यों के बाह्य अर्थों को आधार बनाकर एक तरफा और मनोनुकूल अर्थ निरुपूर्ण करना बौद्धिक और तार्किक जीवन की नितांत दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद स्थिति है। 
यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है जब आरोपों का विषय किसी समुदाय की आस्थाओं से जुड़ा हो। आरोपों में अगर दंभ और दुराग्रह हो तब तो स्थिति अत्यंत ही गंभीर और भयावह हो जाती हैं।

ऐसे आपत्तिकर्ताओं के लिए सत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने लिखा है- "बहुत से हठी, दुराग्रह मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते है,विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के। आग्रह से उनकी बुद्धि अंधकार में फंस कर नष्ट हो जाती है।" (भूमिका) 

कुछ ऐसा ही व्यवहार कुरआन के साथ कथित लेखकों ने किया है स्वामी जी जिनमे आप भी गिनती में आते है और आलोचकों द्वारा भी किया गया है। कुरआन की मंत्रो (आयतों) की जो आलोचना विरोधी मत वालों के द्वारा की गई है उसमें न विवेक नज़र आता है और न कहीं गंभीरता नज़र आती है। उसमें केवल आग्रह और दुराग्रह है जो विवेकपूर्ण जीवन के लिए अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यह भी बौद्धिक जीवन की एक विडंबना ही है कि जो आरोप खुद हम पर बनते हैं वही आरोप हम दूसरों पर लगाए।
।।धन्यवाद।।
-Shoaib Pathan

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