कुछ दिन पहले टीवी पर एक क्रिश्चियन महिला
समाज सेविका का इण्टरव्यू देखा जो किसी
समय मे जबरदस्त घरेलू हिंसा की शिकार रही
थीं,
ये जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि पति
द्वारा इतनी क्रूरता से अकारण पिटाई करने,
अंग भंग और हत्या तक कर देने की स्थिति मे
भी 30 वर्ष पहले तक देश मे एक ईसाई महिला
को अपने पति से तलाक लेने का अधिकार नहीं
था (अब शायद मिल गया हो, मुझे इस विषय मे
जानकारी नहीं)....
इसी तरह हिंदू महिलाओं को भी हिन्दू मैरिज
एक्ट 1955 से पहले कितनी भी पीड़ादायक
स्थिति मे अपने पति से तलाक लेकर खुद को
सुरक्षित कर लेने का अधिकार नहीं था ...
फिर मैं देखता हूँ, इस्लाम धर्म की ओर, जिसमें
शुरू से ही पुरूषों के साथ साथ स्त्रियों को भी
ये आजादी है, कि जब वैवाहिक जीवन
दुर्भाग्यवश इतना अप्रिय और असहनीय हो
जाए कि साथ रहना मुश्किल हो जाए तो ऐसे
अप्रिय सम्बन्धो का बोझ ढोते रहने की बजाय
पति और पत्नी एक दूसरे से सम्बन्ध विच्छेद
कर के अपना जीवन नए सिरे से शुरू कर सकते
हैं ।
अन्य धर्मों मे जहाँ तलाक का विधान नहीं
था ऐसे दुष्कर हो चुके सम्बन्धो मे पति या
पत्नी की हत्या तक करने कराने की नौबत आ
जाती थी, ...
उसके मुकाबले मे तलाक एक बेहद
बेहतर ही मार्ग था ... लेकिन उसके बावजूद
तलाक को भी स्त्रियों पर अत्याचार के रूप मे
ही प्रचारित किया गया ....
निसन्देह ये बात स्वीकारनी होगी कि वास्तव मे
कुछ अनपढ़ जाहिल मुस्लिमों ने भी तलाक को
केवल पुरूषों को मिला अधिकार समझ लिया और
फिर इसे स्त्रियों को सताने का एक साधन ही
मान लिया...
...
और छोटी छोटी बातों मे भी तलाक के डर की
ये तलवार पूरे जीवन उनके सर पर लटकाए
रखी...और कई बार अकारण ही तलाक देकर
बहुत सी निर्दोष स्त्रियों के जीवन बरबाद कर
डाले....
परंतु ये तलाक (एक ही बैठक मे दिया
जाने वाला तलाक) इस्लामी नियमों के अनुरूप
नहीं बल्कि इस्लाम का खुला उल्लंघन थे, ये भी
तथ्य है, निश्चय ही ऐसे दुष्ट लोगों को अपने
कर्म भुगतने पड़ेंगे, जिन्होने तलाक को मजाक
बनाने की कुचेष्टा की
वास्तव मे तलाक की व्यवस्था विशेषकर
स्त्रियों की सुरक्षा के लिए दी गई है कि क्रूर
पति से स्त्री स्वयं ही छुटकारा ले सके या यदि
पति को अपनी स्त्री से दुश्मनी हो जाए तो
स्त्री को अन्य कोई हानि पहुंचाने के स्थान पर
वो उससे शांति से अलग हो जाए....
लेकिन तलाक की व्यवस्था पर अतिक्रमण कर
के जिस तरह पुरूषों ने अपनी सुविधा से तलाक
का उपयोग और दुरुपयोग करने की परिपाटी बना
ली वो निश्चित ही निन्दनीय और बड़ा अपराध
है .... लेकिन कुछ जाहिलों की मूर्खता या
निरन्तर दुष्प्रचार के बावजूद तलाक का विधान
अनुपयोगी या अन्यायपूर्ण सिद्ध नहीं हो जाता,
ये बात उपरोक्त पहले बताए कारणों को देखकर
समझ मे आ जाती है
बहुत से लोगों को ये गलतफहमी है कि इस्लाम मे
अपने पतियों को एकतरफा तलाक देने का
स्त्रियों को पुरूषों की तरह का हक हासिल नहीं
है .... पर ये खयाल सही नहीं.... ॥
शरीयत मे
कुरआन, हदीस और फिक्ह के आधार पर तलाक
के दस तरीके प्रचलित हैं :-
TaLaq e Ahsan, TaLaq e hasan, TaLaq_e_Tafweez, TaLaq ul Biddat ,ILa Jihar, khuLa , Lian, Fasq
और Mubarat !
यहाँ जिन पांच नामों को मैंने टैग किया है, उनमें
बीवी को अपनी मर्जी से पति से तलाक लेने का
हक हासिल है, जबकि मुबारत के अलावा जो चार
नाम टैग नहीं किए, उनमें पति को अपनी मर्जी
से बीवी को तलाक देने का हक है ॥
इनमें खुला वो तलाक है जो पत्नी अपने पति को
पति की मर्जी के खिलाफ, केवल अपनी मर्जी
से देती है,
कुरान 4:128 और 2:229 मे ये व्यवस्था है कि
यदि पति से स्त्री को हानि पहुंचने का भय हो
तो वो तलाक (खुला) ले सकती है ॥
अत: पति
से अलगाव हासिल करने को पत्नी मेहर की रकम
जो उसे पति से मिलने वाली थी वो छोड़ देती है,
खुला की व्यवस्था मे पति यदि पत्नी को तलाक
न भी देना चाहे तो भी शरीयत आधारित
न्यायाधीश परिस्थितियों को देखकर पत्नी की
इच्छा को ही वरीयता देकर उसे खुला दिलवा
देता है ।
लेकिन यदि पत्नी पति से अपनी इच्छा से
तलाक भी लेना चाहती हो और पति से एलिमनी
भी हासिल करना चाहती हो तो स्त्री की मदद
के लिए शरीयत मे चार तरीके और मौजूद हैं
जिनके नाम ऊपर मैंने टैग किए हैं । इन मे औरत
अपने पति की किसी अनुचित हरकत को आधार
बनाकर (जिन्हें आधार बनाने की शरीयत मे
अनुमति हो) तलाक का दावा करती है,
साथ ही
तलाक मिलने पर एलिमनी पाने की भी हकदार
होती है ॥
मुबारत मे पति, पत्नी की आपसी सहमति से
तलाक होता है, तो इसमें एक सम्भावना ये भी
होती है कि पत्नी अपनी इच्छा से एलिमनी छोड़
दे,
खैर 10 मे से 9 तरीकों मे पत्नी को पति से
भरण पोषण पाने का हक है, यदि मुबारत मे
पत्नी मेहर पति पर माफ कर दे तो गिनती 8 रह
जाती है
पर पति को 10 मे से एक तलाक मे भी भरण
पोषण पाने का अधिकार नहीं ...
हां विरल
परिस्थितियों मे खुला मे कभी कभार पति कुछ
हर्जाना पा सकता है, पर सामान्यतः खुला मे
पति को इतनी ही सुविधा मिलती है कि उसे
पत्नी को मेहर नहीं देना पड़ता ...
ज़रा गिन कर बताईए ,यहाँ किसके अधिकार
ज्यादा हैं, पति के या पत्नी के ??
कुछ लोग इतना सब जानकर भी शब्दजाल
फैलाते हैं, और कहते हैं कि इस्लाम मे स्त्रियों के
साथ अन्याय तो इसी बात से दिख जाता है कि
पुरुष तो स्त्री को तलाक "देता" है, जबकि
स्त्री पुरुष से तलाक "मांगती" है ....
वैसे कोई
मुझे ये बताएगा कि केवल शब्दों के इस फेर से
किसी पर क्या अन्याय हुआ ?? अधिकार तो
स्त्रियों को पूरे ही मिले न ??
जी हां मांगना और देना दो अलग शब्द हैं उसका
कारण ये है कि तलाक के बाद पत्नी को
एलीमनी पति देगा , जबकि पत्नी तलाक मांगेगी
क्योंकि उसे तलाक के बाद पति से एलीमनी पाने
का भी अधिकार चाहिए ...
पति पत्नी को तलाक के बाद भरण पोषण देने
को सदैव बाध्य रहता है, सिवाय तब के जब
पत्नी स्वयं ही भरण पोषण का दावा छोड़ दे
जबकि पति किसी भी हाल मे तलाक मे कोई
भरण पोषण पाने का अधिकारी नहीं होता...
.....
क्या आपको ये नहीं दिखाई देता कि
इस्लाम ने स्त्रियों को मेहर प्राप्ति का पुरूषों
की अपेक्षा एक अतिरिक्त अधिकार दिया हे।
Post By-Pathan