Sunday, 19 July 2015
वैदिक धर्म की की और आना कैसा ..?
दयानंद के # वेदों_की_ओर_लौटो के आह्वान
के
कारण स्वयं आर्य समाज भटक गया। वास्तव
में वेद कोई ज्ञान का भंडार नही है बल्कि
आर्यों के आदि-मानवीय जीवन की क्रिया
कलापों का वर्णन है।
जब आर्य जंगलों में घूमक्कड़ जीवन बिता रहे थे,
उस काल में यह लोग अपनी युरेशियन भाषा
संस्कृत में बोलते, नाच-गान करते और अपने
क़बीले के सरदार जिसे इंद्र की उपाधि से
नवाज़ा करते थे, उनकी प्रशंसा में पशु बलि के
समय सुक्त वचन करते थे। यही मौखिक ज्ञान-
परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही। इन सुक्तों
में वह सभी क्रिया कलाप है जिसे ये लोग श्लील
और अश्लील के रूप में अलग अलग नहीं देखते
थे।
आर्यों के क़बीलाई जीवन में नंगा रहना, सबके
सामने मैथुन करना भी जायज़ था। वे उसे बच्चा
पैदा करने का एक यज्ञ ही मानते थे। उस समय
ख़ुशी में श्लोक भी बोलते थे। उन्हीं श्लोकों को
आज हम वेदों में देख सकते हैं जिसे दयानंद
सरस्वती ने गलत भाव देकर सारे सुक्तों को
परमेश्वर से जोड़ दिया।
क्या ऐसा करना सही था ? उसने तो आर्यों की
जीवन शैली ही बदल कर रख दी। आर्यों के
इतिहास को धार्मिकता के चोले में ढक दिया।
आप मानें या न मानें, मैंने भी 1 नही 3-3
भाष्यकारों के वेद भाष्यों का अवलोकन किया
है।***
वेद कोई ज्ञान का ख्ज़ाना नही है बल्कि इसमें
हिंसा और अश्लीलता के सिवा कुछ नहीं है।
मगर मैं इन श्लोकों को गलत नहीं मानता।
क्योंकि यह उनके जंगली जीवन की क़बीलाई
शैली थी। गलत वो आर्य समाजी हैं जो वेदों की
असलियत को छुपा रहा है।
प्राचीन आर्य घुमक्कड़, हिंसक, असभ्य थे, पशु
मांस खाते थे, सबके सामने मैथुन करते थे।
जबकि भारत में महान सिंधु सभ्यता विकसित हो
चुकी थी तब ये लुटेरे उत्तरी ध्रुव और इरान
(फ़ारस) में भटक रहे थे। इसलिए इन वैदिक
आर्यों को इन तथ्यों को स्वीकार करने में
संकोच हो रहा है क्योंकि इससे इनका मत भंग
होता है।
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