Monday, 20 July 2015

खुदा के कानून की अहमियत

जीवन में क़ानून का महत्व

ऐतिहासिक प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि क़ानून और नियम, चाहे वह संस्कार, परंपरा और क़ानूनी रूप में हों, सदैव से ही मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण रहे हैं। धरती पर मनुष्य ने जब से क़दम रखा है तभी से उसके साथ सामाजिक नियम और क़ानून रहे हैं। मनुष्य ने विशेषकर सामाजिक संबंधों के जटिल होने के समय इस बात को स्वीकार किया कि जीवन में क़ानून के पाये जाने की आवश्यकता है।

क़ानून उस वस्तु को कहते हैं जो सामाजिक जीवन में मनुष्य के लिए यह निर्धारत करता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए। बिना क़ानून और नियम के जीवन समस्याओं से ग्रस्त और उसमें विघ्न उत्पन्न हो जाता है। जब मनुष्य सामाजिक जीवन व्यतीत करना चाहता है और एक दूसरे से सहयोग करना चाहता है और इस सहयोग के माध्यम से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों को आपस में विभाजित करना चाहता है तो उसे दूसरे के हितों और इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए। जो भी अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहता है या वह अपनी इच्छा के अनुसार यह निर्धारित करता है कि लोगों के साथ किस प्रकार का बर्ताव करना चाहिए, इससे सामाजिक जीवन की नय्या पार नहीं लग सकती और सामाजिक मंच पर उसे गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इस विवाद को रोकने के लिए कुछ कानून और नियम निर्धारित करने होंगे, वरना सामाजिक जीवन डगमगा जाएगा और उसके आधार धराशायी हो जाएंगे। अब प्रश्न यह है कि कब और कहां पर इस प्रकार के साधारण क़ानून बनाए जाएं और पेश किए जाएं?

इतिहास पर दृष्टि डालने से यह बात समझ में आती है कि पहली बार प्राचीनतम और सबसे व्यापक क़ानून बेबीलोनिया की धरती पर हमूराबी के आदेश पर बनाया गया। वह 2013 से 2080 ईसा वर्ष पूर्व वर्तमान इराक़ के बेबीलोनिया पर राज करता था। उसके द्वारा जारी किया गया वैश्विक क़ानून अधिकतर झूठे आरोप, झूठी सौगंध, न्यायाधीश को घूस देने, फ़ैसले में अन्याय करने, राजा और प्रजा के मध्य संबंध, व्यापारिक और पारिवारिक क़ानून जैसे मामलों से संबंधित थे किन्तु ईश्वरीय क़ानून का इतिहास इससे भी प्राचीन है अर्थात ईश्वरीय क़ानून हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के काल से प्रचलित था। हज़रत नूह एक वरिष्ठ ईश्वरीय दूत थे जिन्होंने हज़रत मूसा और ईसा से पहले लोगों के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभाला। समाज का विस्तार, भौतिक, जातीय और सांप्रदायिक हितों को लेकर लोगों में मतभेद का बढ़ना, कारण बना कि ईश्वरीय दूत लोगों के मतभेद को दूर करने और उन्हें कल्याण का मार्ग दिखाने के निरंतर रूप से उचित क़ानून लोगों के सामने पेश करें। धर्म की परिधि में यह क़ानून दिन प्रतिदिन परिपूर्ण और व्यापक होते गये, यहां तक कि अंतिम ईश्वरीय दूत हज़रत मूहम्मद सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के काल में यह क़ानून और नियम परिपूर्णता के चरम पर पहुंच गये।

इस्लाम धर्म के क़ानून और नियम आसमानी पुस्तक क़ुरआन के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम के माध्यम से मानवता के सामने पेश किये गये। इस आधार पर पवित्र क़ुरआन, इस्लाम धर्म के क़ानून की किताब है जिसमें मनुष्य के मार्गदर्शन के कार्यक्रम, सामाजिक संबंध कैसे होने चाहिए और क़ानूनी और नैतिक नियमों के बारे में विस्तारपूर्वक बयान किया गया है। ईश्वरीय क़ानून की कुछ विशेषताएं हैं जो उसे लोगों द्वारा बनाए गये क़ानूनों से अलग करती हैं।

एक उचित और व्यापक क़ानून को मनुष्य की अध्यात्मिक व भौतिक आवश्यकताओं का उत्तर देने वाला होना चाहिए और इसका लागू होना, इन दोनों क्षेत्रों में समस्त लोगों की प्रगति और परिपूर्णता की भूमिका बने और शांति उत्पन्न होने का कारण बने। पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों में चिंतन मनन करके इस वास्तविकता का पता चल जाता है कि इस क़ानून और नियम को बनाने वाला अर्थात तत्वदर्शी और सर्वगुण संपन्न ईश्वर इन समस्त मामलों से भलिभांति अवगत है। लोगों के लिए वांछित क़ानून की कुछ विशेषताएं होती है और क़ानून बनाने वाला जब तक इन विशेषताओं से अवगत नहीं होगा तो इस प्रकार क़ानून बना ही नहीं सकता। अधिकारों का ख़याल रखना या अधिकारों से पूर्ण रूप से अवगत होना इन विशेषताओं में से एक है। अर्थात क़ानून बनाने वाले को समाज के हर व्यक्ति और हर गुट के उच्चाधिकारों और ज़िम्मेदारियों से पूर्ण रूप से अवगत होना चाहिए ना यह कि समाज के लोगों या किसी विशेष वर्ग के के लिए कठिनाइयां उत्पन्न करे और न ही कुछ विशेष लोगों के लिए अतार्किक समस्याएं उत्पन्न करे। क़ानून को समाज के हर वर्ग, वर्ण और गुट के हित में होना चाहिए। हर व्यक्ति या हर गुट के हितों की पूर्ति दूसरों के हितों से समन्वित होनी चाहिए। क़ानून में समाज और लोगों के हितों और हानियों पर दृष्टि रखने, क़ानून को लागू करने की गैरेंटी और मनुष्य की सृष्टि के अंतिम लक्ष्य और उसकी अध्यात्मिक परिपूर्णता पर दृष्ट

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