Saturday 18 July 2015

आर्य समाज के संस्थापक दयानंद जी का जीवन

अवश्य पढ़ें और अपने मित्रों को भी पढ़ाएं। अगर किसी #आर्य_समाजी_को इस पोस्ट में कोई गलती दिखाई दे तो अभद्रता दिखाकर आर्य समाज की संस्कृति सभ्यता दिखाने की बजाय अपने तर्क शांतिपूर्वक रखे। दयानंद का जन्म ब्राहमण परिवार में हुआ अर्थात पिताजी सवर्ण ज्ञानी थे वेदों का ज्ञान भी होगा या पुराणों का किन्तु वे हिन्दू थे और वे मंदिर में पूजा किया करते थे। लेकिन दयानंद ने 1838 में मात्र 15 साल की उम्र में शिवरात्रि पर देखा कि शंकर जी की मूर्ति के पास रखे प्रसाद को एक चूहा खा रहा है लेकिन शंकर जी अपने प्रसाद की भी रक्षा नहीं कर सके इसलिए दयानंद को लगा कि जो शंकर अपने चढ़ाए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वो विश्व की रक्षा कैसे करेगा अर्थात दयानंद ने निर्णय लिया कि शंकर जी भगवान नहीं हैं और तब से शंकर जी की पूजा करनी बंद कर दी और अपने ही पिता के साथ बहस की और तर्क कुतर्क के साथ ये निर्णय लिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की पूजा नहीं करनी चाहिए। यहाँ से मूर्ति पूजा का विरोध आरम्भ हुआ। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था, शंकर से विरोध के कारण दयानंद ने अपना नाम भी बदल कर दयानंद सरस्वती रख लिया। दयानंद पूरी तरह से नास्तिक हो चुके थे ईश्वर में या ईश्वर के किसी अवतार में कोई विश्वास ही नहीं रह गया। यहाँ तक कि अपने पिता को भी गलत साबित करने के लिए उनसे कई बार बहस की। दयानंद के इस व्यक्तित्व और नास्तिकता के कारण माता पिता चिंता में रहने लगे थे। कुछ समय पश्चात अपनी छोटी बहन और चाचा की असमयिक मृत्यु के कारण मानसिक तौर पर जन्म और मृत्यु के विषय को गंभीरता से लेते हुए ऐसे ऐसे प्रश्न करने लगे जिसके जवाब पिता के पास भी नहीं थे और न ही किसी अन्य के पास थे। जैसे कि उनको मरने से न बचाने का कारण मृत्यु टालने के उपाय आदि। दयानंद की इस स्थिति के कारण माता पिता ने निर्णय किया कि अब दयानंद का विवाह करा देना चाहिए शायद कुछ सोच में अंतर आये। लेकिन दयानंद को अपनी सोच की खोज विवाह से ज्यादा उचित लग रही थी, इसलिए 1846 में जब उनकी उम्र 23 साल की थी घर छोड़ दिया। आर्य समाजी कहते हैं कि कम उम्र में विवाह का निर्णय लिया था पिता ने किन्तु सत्य तो ये है कि 23 साल की उम्र कम नहीं होती आज के समय के अनुसार भी विवाह के लिए उत्तम मानी जाती है। घर से निकलकर कई जगहों पर यात्रा की और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। परंतु गुरुवार बुद्धि में बदलाव न कर पाए और दयानंद ने पूजा पाठ का विरोध करना पुनः आरम्भ कर दिया। गुरु ने कहा कि मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ किन्तु उन्होंने उनकी विद्या ज्ञान ईश्वर भक्ति को मिटाना आरम्भ कर दिया। कई जगहों पर ईश्वर की पूजा का विरोध किया और पूजा पाठ को पाखण्ड बताया और लोगों को पूजा पाठ से रोकने हेतु प्रयास किया। बहुत से नास्तिक लोग दयानंद के साथ हो लिए और सभी नास्तिकों ने अपना एक दल बनाया। 1866 में हरिद्वार पहुंचकर कुंभ के अवसर पर पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई। गंगा स्नान आदि जैसे कर्मकांड भी पाखण्ड बताकर विरोध किया और लोगों को पूजा पाठ से रोका। [वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है। रामायण,महाभारत गीता पुराण आदि सारे धर्म ग्रन्थ नहीं हैं।] – इस का प्रचार करने के लिए दयानंद ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया। ये समय था जब हमारे देश में संस्कृत भाषा नाम मात्र को ही थी। वे हिंदी भाषा नहीं बोलते बल्कि संस्कृत में तीव्र प्रवाह से बोलते थे। इस कारण लोगों को कुछ ज्यादा ही ज्ञानी लगते थे। साथ ही वे तर्क लगाने में बहुत तेज थे या कहें कि कुछ ज्यादा ही नास्तिकता के कारण तर्क कुतर्क कुछ ज्यादा ही करते थे और सभी जानते हैं कि कुतर्कों का जवाब नहीं होता। संस्कृत ही बोलने के कारण बहुत कम लोग उनकी बात समझते थे अज्ञानी लोग उन्हें संस्कृत में तेज बोलने के कारण महाज्ञानी समझते थे। लेकिन उनकी बात का मूल नहीं समझ पाते थे। इसलिए उन्हें किसी ने हिंदी में लोगों से बात करने की सलाह दी क्योंकि कलकत्ता बम्बई आदि जिन स्थानों पर दयानंद जाते थे वहां संस्कृत के लोग नहीं बल्कि वहां की क्षेत्रीय भाषा वाले लोग अधिक होते थे जैसे कि कलकत्ता में बंगाली मुम्बई में मराठी भाषा जिनमे इतना अंतर है कि दोनों आपस में भी एक दुसरे की बात नहीं समझ सकते। इस कारण बहुत से लोग जिनके आगे तर्क कुतर्क करके दयानंद खुद और उनके अंधभक्त उनको महाविद्वान समझने लगे किन्तु फिर भी लोगों को कलकत्ता में एकमत नहीं कर सके दाल न गलने के कारण मुम्बई आ गए। इसके पश्चात् दयानंद ने हिंदी भाषा का उपयोग आरम्भ किया। मुम्बई आकर दयानंद ने 1875 में अपनी सत्यार्थ प्रकाश किताब हिंदी में लिखी और आर्य समाज की स्थापना की। मुम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके। तब दयानंद यहाँ भी अपनी दाल न गलते देखकर दिल्ली प्रस्थान कर दिए। तीन वर्ष तक मुम्बई में प्रचार में असफल होने पर मुंबई से लौट कर 1878 में दयानंद इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए। वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं आ सके। यहाँ भी दयानंद किसी को एकमत नहीं कर पाए। इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है। दयानंद ये भी समझ गए कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। जीवन मृत्यु किसी के वश में नहीं है। दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मञ्च पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे किन्तु भाव केवल सभी के पूजा पाठ कर्म कांडों को अन्धविश्वास और पाखण्ड बताकर केवल अपनी सोच को ही उनपर सवार करने से था।

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