Sunday, 19 July 2015

क्या दाह संस्कार ( मुर्दों को जलाना ) उचित हे ..?

सत्यार्थ प्रकाश ममें दयानंद सरस्वती ने एक समीक्षामें लिखा है कि मुर्दे को गाड़ने से संसार की बड़ी हानि होती है, क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देता है। क्या दफनाना गलत और जलाना सही .? 

एक सामान्य व्यवहार की बात है कि अगर बस्ती के पास कोई बदबूदार गंदगी या कोई जानवर जैसे चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि मरा पड़ा हो तो बदबू से बचने के लिए बस्ती के लोग उसे मिट्टी में दबा देते हैं ताकि बदबू फैलकर मनुष्यों को प्रभावित न करें। 
मनुष्य की अंतरात्मा कभी यह गवारा न करेगी कि किसी मृत जानवर को जलाया जाए। 
अगर कोई व्यक्ति किसी मृत जानवर को जलाएगा तो उसे अवश्य घिन आएगी। 

दूसरी यह बात भी सामान्य सी है कि जब किसी वस्तु आदि को जलाया जाता है तो उससे अवश्य वायु प्रदूषित होती है। मृत मनुष्यों को जलाना तो वस्तु आदि के जलाने से कहीं अधिक हानिकारक और ख़तरनाक है क्योंकि मृत मनुष्य को जलाने से न केवल वायु प्रदूषित होती है बल्कि रोगजनित गैसे भी निकलती हैं, जिनका प्रभाव मानव जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य पड़ता है। 

तीसरा एक मानवीय पहलू यह भी है कि जिस व्यक्ति के साथ हमनेजीवन गुजारा है, जो हमारी आदरणीय माँ, बाप, प्रिय पत्नी, पुत्र व पुत्री आदि है, मरने के बाद उसे अपनी आँखों के सामने, अपने ही हाथों से आग में रखना व उसकी हड्डियों तक को भस्मीभूत कर देना कहाँ की मानवता है ?.. 

क्या यह क्रिया दिल दहलादेने वाली नहीं है ? इस विषय से जुड़ा एक अनैतिकव अमानवीय पहलू यह भी देखने में आता है कि जब किसी लाश को जलाया जाता है तो कफ़न पहले जलता है और लाश नंगी हो जाती है। यह वाकिया मानवता को ‘शर्मसार करने वाला होताहै। लाश अगर माँ अथवा औरत की हो तो इससे अधिक निर्लज्जता की बात क्या कोई और हो सकती है.....? 

स्वामी दयानंद सरस्वती ने दाह संस्कार की जो विधि बताई है वह विधि दफ़नाने की अपेक्षा कहीं अधिक महंगी है। जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि मुर्दे के दाह संस्कार में ‘शरीर के वज़न के बराबर घी, उसमें एक सेर में रत्ती भर कस्तूरी, माशा भर केसर, कम से कम आधा मन चन्दन, अगर, तगर, कपूर आदि और पलाश आदि की लकड़ी प्रयोग करनी चाहिए। मृत दरिद्र भी होतो भी बीस सेर से कम घी चिता में न डाले। (सत्यार्थप्रकाश13-40,41,42) 

स्वामी दयानंद सरस्वती के दाह संस्कार में जो सामग्री उपयोग में लाई गई वह इस प्रकार थी - घी 4मन यानी 149 कि.ग्रा., चंदन 2 मन यानि 75 कि.ग्रा., कपूर 5 सेर यानी 4.67 कि.ग्रा., केसर 1 सेर यानि 933 ग्राम, कस्तूरी 2 तोला यानि 23.32 ग्राम, लकड़ी 10 मन यानि 373 कि.ग्रा. आदि । (आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक, ‘‘महर्षि दयानंद का जीवन चरित्र’’ से) 

उक्त सामग्री से सिद्ध होता है कि दाह संस्कार की क्रिया कितनी महंगी है। गरीब परिवार का कोई व्यक्ति इस क्रिया को निर्धारित सामग्री के साथ नहीं कर सकता। आज के भौतिकवादी दौर में उपरोक्त किसी भी सामग्री का ‘शुद्ध और स्वच्छ मिलना भी न केवल मुश्किल बल्कि असम्भव है। 

अतः दाह संस्कार की विधि निर्धारित नियमों व मानकों के आधार पर करना अव्यावहारिक है। दाह संस्कार में मुर्दे के वजन के बराबर घी का सिद्धांत यानी किसी व्यक्ति के दाह संस्कार में 9-10 कनस्तर घी का इस्तेमाल क्या बेतुका- सा नहीं लगता.....? 
यहाँ एक बात यह भी विचारणीय है कि हिंदू समाज में बच्चों, साधु-संन्यासियों को औरकुछ वर्गों में आम व्यक्तियों को दफ़न किया जाता है। जब जलाना सर्वोत्तमहै,, तो फिर सर्वोत्तम विधि से बच्चों और साधु- संतों का अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया जाता? 

एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि आर्य अपने मुर्दों को दफ़न करते थे, जलाते न थे। .
माह सितम्बर 2005 में, मेरठ के सिनौली स्थान पर 5 प्राचीनकालीन ‘शवधियाँ मिली थी, जिनमें मानव कंकाल सुरक्षित हालत में प्राप्त हुए थे। सभी‘शवधियाँ एक विशिष्ट दिक्स्थापन (सिर उत्तर दिशा में और पैर दक्षिण दिशा में) पैर सीधे और मुंह को बांयी बगल की ओर करके लिटाई गई थी। 

यह एक सबूत इस बात का है कि प्राचीन लोग भारत में अपने मुर्दों को दफ़न करते थे।हिंदू धर्म-दर्शन की यह धारणा कि मनुष्य का ‘शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है, मृत्युपरांत पंच तत्वों में विलीन किया जाना चाहिए। अगर इस धारणा को सही माना जाए तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत्युपरांत दाह संस्कार की विधि मानव ‘शरीर को पंच तत्वों में विलीन करने की उचित विधि नहीं है। 
पंच तत्वों मेंविलीन करने की उचित विधिकेवल दफ़नाना ही है।

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