Monday, 27 July 2015

कुरान और धार्मिक स्वतंत्रता .. @

# कुरआन_और_धार्मिक_स्वतंत्रता इसमें कोर्इ शक (सन्देह) नही कि कुरआन चाहता हैं एक ईश्वर (अल्लाह) के सिवा किसी अन्य की इबादत न किया जाए। उसे ही खालिक, पालनहार, परवरदिगार, कुदरतवाला, आलिमुलगैयब, रिज्क देने वाला, जरूरतें पूरी करने वाला, सुख ओर दुख देने वाला, मौत और जिन्दगी का मालिक और सारे जहाँ का बादशाह, कयामत (प्रलय) के दिन इन्सानों का हिसाब- किताब लेने वाला स्वीकार किया जाए। उसे निराकार माना जाए और उसका बुत न बनाया जाए। लेकिन कुरआन अपनी इस सही और उचित बात को भी बलपूर्वक और जोर-जबरदस्ती से नही मनवाता बल्कि इसके लिए वह सबूत देता है! अच्छा हुक्म और सोच-विचार करने का। कुरआन की यह तालीम और हुक्म बिल्कुल नही हैं कि जो इन बातों को कबूल न करे उससे युद्ध किया जाए और उसे मौत के घाट उतार दिया जाए। यह एक बिलकुल ही झूठा आरोप हैं जो कुरआन और इस्लाम पर लगाया जाता है। कुरआन मे तो जगह-जगह यह बात कही गर्इ हैं कि इस दुनिया मे इन्सान को सोच-विचार एवं काम की आजादी देकर इम्तिहान के लिए भेजा गया हैं और बलपूर्वक किसी विशेष बात को अपनाने पर मजबूर नही किया गया हैं। इस दुनिया (कर्म-क्षेत्र) में वह जो भी नीति अपनाएगा मौत के बाद आने वाले आखिरत के जीवन में उसके अनुसार वह इनाम या सजा पाएगा। ताकत या तलवार के साथ किसी को अपनी बात अपनाने पर मजबूर करने की तालीम और हुक्म अगर कुरआन देता तो फिर इस हालत मे इम्तिहान का वह मकसद ही खत्म हो जाता जिसका जिक्र कुरआन मे बार-बार किया गया हैं। •कुरआन में अल्लाह तआला फरमाते हैं:- ‘‘फिर (ऐ पैगम्बर) हमने तुम्हारी ओर यह ग्रन्थ अवतरित किया जो सत्य लेकर आया हैं और ‘मूल ग्रन्थ’ मे से जो कुछ उसके आगे मौजूद हैं उसकी पुष्टि करने वाला और उसका रक्षक और निगहबान हैं। अत: तुम अल्लाह के भेजे हुए कानून के अनुसार लोगो के मामलों का फैसला करो और जो सत्य तुम्हारे पास आया हैं उससे विमुख होकर उनकी इच्छाओं का अनुसरण न करो। हमने तुम इन्सानों मे से हर एक के लिए एक ग्रन्थ पन्थ और एक कार्य-पद्धति निश्चित की। अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय भी बना सकता था, (लेकिन उसने ऐसा नही किया) ताकि उसने जो कुछ तुम लोगों को दिया हैं उसमें तुम्हारी परीक्षा ले। अत: भलाइयों मे एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करो। अन्तत: तुम सबकों अल्लाह की ओर पलटना है, फिर वह तुम्हें असल वास्तविकता बता देगा जिसमें तुम विभेद करते रहे हो।’’ (कुरआन: 5/48) •कुरआन मे एक जगह अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल0) को फरमाया:- ‘‘(ऐ पैगम्बर!) ऐसा लगता हैं कि अगर इन लोगो ने इस शिक्षा को ग्रहण नही किया (ईमान न लाए) तो तुम इनके पीछे दुख के मारे अपने प्राण ही दे दोगे। सत्य यह हैं कि जो कुछ सुख- सामग्री भी जमीन पर हैं, उसको हमने जमीन का सौन्दर्य बनाया हैं ताकि लोगो की परीक्षा ले कि उनमें कौन उत्तम कर्म करने वाला हैं।’’ (कुरआन: 26/3) •कुरआन मे दूसरी जगह पर कहा गया:- ‘‘बड़ा बरकत वाला (विभूतिपूर्ण) है वह जिसके हाथ में साम्राज्य है और वह हर चीज़ पर सक्षम है।जिसने मृत्यु और जीवन को पैदा किया ताकि वह तुमको जाँचे कि तुममे से कौन अच्छे कर्म करता है। और वह शक्तिशाली है, क्षमा करने वाला है।’’ (कुरआन 67: 1-2) इसी तरह की बहुत-सी आयतें कुरआन मे मौजूद हैं, जिनसें इस बात का पता चलता है कि इन्सान को इस दुनिया मे अकल और आमाल (कर्म) की आजादी देकर उसका इम्तिहान लिया जा रहा हैं। इन तालिमात के होते हुए यह मतलब कैसे निकाला जा सकता हैं कि किसी को तलवार या ताकत के जोर से एक ही बात कबूल करने पर मजबूर करने का हुक्म कुरआन देता हैं। जिन लोगों से जंग करने की बात कुरआन मे कही गर्इ हैं वह उनके गैर-मुस्लिम होने की वजह से नही, बल्कि इस वजह से कही गर्इ। कि वे इस्लाम और उसके मानने वालो (अनुयायियों) पर घोर जुल्म (अत्याचार) करते थें उन्हें खत्म करने के लिए साजिशे करते थे, मुसलमानो पर खुद बढ़-चढ़ कर हमले करते थे, और मुसलमानों को इस्लाम पर अमल करने से रोकते थे! •मजहब (धर्म) कबूल करने के ताल्लुक से कुरआन इस बात का ऐलान करता हैं:- ‘‘दीन (धर्म) के सम्बन्ध मे कोर्इ जबरदस्ती नही।’’(कुरआन, 2 : 256) •कुरआन मे एक ओर जगह है: "(ऐ पैगम्बर) अपने परवरदिगार की ओर से (लोगो के सामने) सत्य पेश कर दो। अब जो चाहे उसे माने और जो चाहे इन्कार करे।’’ (कुरआन, 18:29) •कुरआन मे एक ओर जगह कहा गया:- "और शिर्क (बहुदेववादी) करने वालों पर ध्यान न दो। और यदि अल्लाह चाहता तो ये लोग उसका साझी न ठहराते। और हमने तुमको उनके ऊपर संरक्षक नहीं बनाया है और न तुम उन पर अधिकारी हो’’ (कुरआन, 6:106-107) •कुरआन मे एक ओर जगह कहा गया:- ‘‘तुम उनके उपास्यों को, जिन्हें वे अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं, गालियों न दो ( न उनके लिए अपशब्द कहो)।’’ (कुरआन 6:108) कुरआन उपदेश दीजिए और समझाइए-बुझाइए क्योकि आपके जिम्में केवल नसीहत देना हैं। आप उनपर दारोगा या हवलदार नही हैं (कि जोर- जबरदस्ती से अपनी बात मनवा लें)।’’ (कुरआन 88:21-22) •कुरआन में एक ओर जगह पर हैं:- ‘‘हमने उसको (मनुष्य को) सत्यमार्ग दिखा दिया हैं। अब चाहे वह (उसपर चलकर) कृतज्ञ बने, चाहे (उसे छोड़कर) अकृतज्ञ।’’ (कुरआन 76:3) •कुरआन में हैं:- ‘‘कहो कि ऐ अवज्ञाकारियो,मैं उनकी उपासना नहीं करुँगा जिनकी उपासना तुम करते हो।और न तुम उसकी उपासना करने वाले हो जिसकी उपासना मैं करता हूँ।और मैं उनकी उपासना करने वाला नहीं जिनकी उपासना तुमने की है। और न तुम उसकी उपासना करने वाले हो जिसकी उपासना मैं करता हूँ।तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म), और मेरे लिए मेरा दीन (धर्म)।’’ (कुरआन, 109 : 1-6) कुरआन की यह सूरा उस समय की हैं जब अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल0) लोगों को एक अल्लाह की ईबादत और बन्दगी की और बुला-बुलाकर थक गए थे और कुछ लोगो ने मानकर नही दिया और अब उनसे कोर्इ उम्मीद भी बाकी नही रही कि वे एक अल्लाह की ईबादत के लिए तैयार होंगे। इन हालात में नबी करीम सल्ल0 की जुबान से एलान कराया गया और इन्कार करने वालो से कह दिया गया कि अगर तुम अपनी नीति पर अडिग रहना चाहते हो तो ये कुरआनी तालीमात इन्सान की धार्मिक स्वतंत्रता का खुला एलान हैं। जो धर्म और जो किताब यह एलान खुद करती हो उसके बारे मे यह दुष्प्रचार करना कि उसकी यह शिक्षा हैं कि ‘‘ जो उस पर र्इमान न लाए उसे कत्ल कर दिया जाए,’’ कितना बड़ा अत्याचार व अन्याय हैं। कुरआन और इस्लाम के बारे में इस तरह का गलत और उल्टा प्रचार करने वाली संस्थाओं और उनके हमख्याल लोगो के मन मे कभी यह ख्याल नही आता कि जब इस्लाम और कुरआन की सही तालीम और सही तस्वीर लोगो के सामने आएगी तो लोगो की उनके बारे में क्या राय बनेगी। सारी दुनिया तो उनके समान विचार वाली हैं नही कि लोग आंखे बन्द करके उनकी बातों को सच मान लेगे। यह युग ज्ञान- विज्ञान और शोध और खोजों का युग हैं और दुनिया में बहरहाल ऐसे लोगो की बड़ी तायदाद मौजूद हैं जो जानकारी और शोध के बाद ही किसी के बारे मे कोर्इ राय बनाते हैं। ऐसे बहुत-से लोगो से हमारी मुलाकाते हुर्इ हैं और होती रहती हैं, जिन्होने इस तरह के दुष्प्रचार से मुतास्सिर होकर इस्लाम और कुरआन का उसके सही हक से अध्ययन किया और इस्लाम की तर्कसंगत, संतुलित और सच पर आधारित समाजसुधार तालिमात से मुतास्सिर हुए बिना न रह सके।

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